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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : प्रस्थान और परम्परा

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Aacharya Ramchandra Shukla : Prasthan Aur Parampara
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल वस्तुतः भारतीय परम्परा के एक ऐसे आचार्य हैं जिनका एक युगोचित प्रस्थान है। हमारे यहाँ आचार्य वही माना गया है जो 'प्रस्थान; प्रवर्त्तक होता है। आचार्य शंकर और वैष्णव आचार्य ऐसे ही हैं। शुक्ल जी का दैशिक-कालिक परिवेश व्यापकतर है। वे 'हमारे यहाँ' से संस्कारत: जुड़े हुए हैं और पश्चिमी संसार के भी चैन्तनिक जगत् से उनका गंभीर परिचय है- यह परिचय दर्शन और साहित्य से तो है ही, 'विज्ञान' की मान्यताओं से भी है। भारत 'देश' अवश्य अपनी पहचान विशिष्ट आध्यात्मिकता में रखता है- पर उसके 'काल' को विज्ञान का हस्तावलंब है। अतः इन सबको आत्मसात् करते हुए उन्होंने अपना प्रस्थान निर्मित किया है।- अपना एक वैचारिक दुर्ग तैयार किया है। असहमति तो आचार्य शंकर से वैष्णव आचार्यों की भी हुई- - अतः यादि यह परवर्ती स्वच्छंतावादी आचार्य नंददुलारे प्रभृति से 'बुद्धिवादी अधूरी दृष्टि है और वैदिक दृष्टि समग्र दृष्टि ।' आचार्य शुक्ल अपने साहित्यिक चिन्तन में औसतन बुद्धिवादी और वस्तुवादी है। इसीलिए प्रगतिवादी चिन्तक उन्हें अपने बहुत नजदीक मानते हैं।

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प्रस्तुत कृति में 'प्रस्थान' प्रवर्तक आचार्य शुक्ल का वैचारिक दुर्ग विशेष रूप से निरूपित हुआ है और प्रयत्न किया गया है कि आत्मवादी 'परम्परा' से उसकाe व्यावर्तक वैशिष्ट्य स्पष्ट हो जाय। आचार्य शुक्ल के संस्कार में आत्मवादी मान्यताओं की गन्ध विद्यमान है और उनके अर्जित ज्ञान में विज्ञान की युगोचित मान्यताएँ भी मुखर है। फलतः यत्र-तत्र उनका अन्तर्विरोध भी उभर आया है। वे एक तरफ भारतीय दर्शन के 'अव्यक्त' (सांख्य की त्रिगुणात्मिका प्रकृति) तथा शांकर वेदान्त के सच्चिदानन्द ब्रह्म का भी प्रसंग प्रस्तुत करते हैं और दूसरी ओर धर्म और भक्ति का परलोक और अध्यात्म से असम्बन्ध भी निरूपित करते हैं। युग धर्म के रूप में मानवता ही उनका ईश्वर है और लोकमंगल पर्यवसायी समाज सेवा उनका धर्म । नेहरू जी ने भी आधुनिक मस्तिष्क की यही पहचान बतायी है। उनकी दृष्टि में रागसमात परदुःख कातरता ही मानवता है जिसे इसी शरीर और धरा पर चरितार्थ होना है। काव्य भी इसी चरितार्थता में सहायक साधन है। वह लोकसामान्य भावभूमि पर सर्जक और ग्राहक दोनों को प्रतिष्ठापित करता है। इसी भावभूमि पर रचयिता से एकात्म होकर ग्राहक कर्तव्य में प्रवृत्त होता है। वे काव्य-सामग्री और प्रभाव का कहीं भारतीय दर्शन और कहीं आधुनिक विज्ञान के आलोक में नूतन व्याख्यान प्रस्तुत करते हैं। कृति इन्हीं बिन्दुओं को स्पष्ट करती है।

परवर्ती पृष्ठ पर 'भारतीय काव्य विमर्श' की इबारत यथावत् निम्नलिखित सूचनाओं के साथ मुद्रित की जा सकती है।

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Aacharya Ramchandra Shukla : Prasthan Aur Parampara
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राममूर्ति त्रिपाठी (Rammurti Tripathi)

राममूर्ति त्रिपाठी

जन्म : 4 जनवरी, 1929; जन्म-स्थान : नीवी कलाँ, वाराणसी (उ.प्र.)।

शिक्षा : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए., पीएच.डी.; साहित्याचार्य, साहित्यरत्न।

काव्यशास्त्र एवं दर्शन के प्रकांड पंडित। हिन्दी विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष-पद से सेवानिवृत्त।

प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ : ‘व्यंजना और नवीन कविता’, ‘भारतीय साहित्य दर्शन’, ‘औचित्य विमर्श’, ‘रस विमर्श’, ‘साहित्यशास्त्र के प्रमुख पक्ष’, ‘लक्षणा और उसका हिन्दी काव्य में प्रसार’, ‘रहस्यवाद’, ‘काव्यालंकार सार संग्रह और लघु वृत्ति की (भूमिका सहित) विस्तृत व्याख्या’, ‘नृसिंह चम्पू’ (व्याख्या), ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, ‘कामायनी : काव्य, कला और दर्शन’, ‘आधुनिक कला और दर्शन’, ‘भारतीय काव्यशास्त्र के नए क्षितिज’, ‘भारतीय काव्यशास्त्र के नए सन्दर्भ’, ‘भारतीय काव्यशास्त्र : नई व्याख्या’, ‘तंत्र और संत’, ‘आगम और तुलसी’, ‘रस सिद्धान्त : नए सन्दर्भ’ (प्रस्तोता के रूप में)।

निधन : 30 मार्च, 2009

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