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आछे दिन पाछे गए

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काशी के समकालीन कथाकारों में जो साहसिकता दिखाई दी थी, वह अपने सबसे अधिक ऊर्जावान रूप में काशी के संस्मरणों में दिखाई देती है। मुझे तो यहाँ तक शक होता है कि भविष्य में काशी केवल अपने संस्मरणों के लिए ही याद किए जाएँगे। उनकी बेबाकी, निडरता, मज़ाक और स्थानीय लोक-शक्ति बिलकुल एक नये काशी से हमारा परिचय कराती है। मुझे लगता है कि काशी को और संस्मरण लिखने चाहिए। संस्मरणों में ही वे अपने श्रेष्ठ रूप में हमारे सामने आते हैं।  

- राजेन्द्र याद
जैसे उर्दू शायरी में एक से एक बड़े शायर होंगे, पर मीर में जो कुछ है, अलग ही है। इसी तरह की बात हिन्दी कहानी के क्षेत्र में काशीनाथ सिंह के साथ है। वे सबसे ऊँचे व आला भले न हों, सबसे अलग और अनूठे जरूर हैं। न उनकी नकल सम्भव है, न उन पर किसी का प्रभाव सिद्ध करना ।...काशीनाथ सिंह की भाषा समकालीन कहानी की मानक भाषा है। छोटे-छोटे सधे हुए वाक्य, चुहल और चाशनी, बयान में बतकही की रवानी, शब्दों का सुचिन्तित और सटीक इस्तेमाल, बड़बोलेपन और शब्द-स्फीति से परहेज और जगह-जगह पाठक को सम्बोधित कर आस्वादक की बजाय सहभोक्ता बनने का आग्रह ।

- स्वयं प्रकाश

जब भी मैं याद करता हूँ इस नगर को यह 'मुगले आज़म' फिल्म के अकबर की तरह मेरी आँखों के सामने खड़ा तमतमाया हुआ, झाँकता-हूँफता नज़र आता है। वही गुस्से में आग उगलती आँखें, थरथराता बदन, घनघनाती आवाज; सुनाई पड़त है- 'अनारकली' ! सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा और हम तुम्हें जीने नहीं देंगे!
यह अकबर और कोई नहीं हिन्दी विभाग था और सलीम मेरा अस्सी; अस्सी मुहल्ले के लोग वहाँ के मेरे पढ़-अपढ़ यार-दोस्त और वे लड़के जिनके साथ मैं पढ़ता-पढ़ाता था और जिन्हें हाल-हाल तक नहीं पता था कि अक्सर हमारे बीच उठता बैठता यह चमरकिट-सा आदमी मास्टर के सिवा भी कुछ है।

-इसी पुस्तक से

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