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आहंग

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हिन्दी के युवा लेखक डॉ. आसिफ उमर द्वारा उर्दू के मशहूर शाइर असरारुल-हक़ 'मजाज़' के उर्दू मजमूआ-ए-कलाम (काव्य-संग्रह) आहंग का देवनागरी लिपि में किया गया लिप्यन्तरण एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। इस लिप्यन्तरण का मक़सद 'मजाज़' की शाइरी को उन लोगों तक पहुँचाना है जो उर्दू, ख़ासकर उर्दू शाइरी से दिलचस्पी रखते हैं, उसे पसन्द करते हैं, उर्दू बोल और समझ भी सकते हैं, लेकिन उर्दू को उसके अपने रस्मुल-ख़त (लिपि) में पढ़ना नहीं जानते। ऐसे लोगों की आसानी के लिए 'मजाज़' के इस मजमूआ-ए-कलाम को डॉ. उमर ने देवनागरी लिपि का रूप दिया है। यह मजमूआ-ए-कलाम (काव्य-संग्रह) उर्दू अदब की दुनिया में एक मिसाल पेश करता है। उर्दू शाइरी की समझ में इजाफ़ा करने के साथ-साथ यह मजमूआ-ए-कलाम (काव्य-संग्रह) इंसानी एहसासात को भी समझने पर जोर देता है। उर्दू अदब की इस नायाब पुस्तक का हिन्दी में लिप्यन्तरण हो जाने से हिन्दी अदब के पाठक खुद को समृद्ध समझेंगे। डॉ. उमर उर्दू और हिन्दी अदब से काफ़ी रग़बत रखते हैं। उर्दू अदब को उसके चाहने वालों तक पहुँचाने का यह प्रयास बेहद प्रशंसनीय है। डॉ. उमर ने लिप्यन्तरण के ज़रिये उर्दू और हिन्दी अदब को क़रीब लाकर साझी संस्कृति को भी मज़बूत करने का सराहनीय कार्य किया है। हम जानते हैं कि लिप्यन्तरण के ज़रिये हम विश्व के तमाम साहित्य को पढ़ और समझ सकते हैं।

डॉ. उमर ने इससे पहले भी उर्दू अदब के हवाले से बेहतरीन काम को अंजाम दिया है। मुझे यक़ीन है कि डॉ. आसिफ उमर की इस किताब की भी ख़ूब सराहना होगी ।


पद्मश्री प्रोफ़ेसर अख़्तरुल वासे
पूर्व उपाध्यक्ष उर्दू अकादमी, दिल्ली एवं पूर्व प्रेसिडेंट मौलाना आज़ाद यूनिवर्सिटी,
जोधपुर, राजस्थान

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Aahang
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असरारुल-हक़ 'मजाज़' (Asrarul-Haq 'Majaz')

असरारुल-हक़ 'मजाज़' -

जन्म : 19 अक्टूबर, 191, रुदौली, उत्तर प्रदेश ।

निधन : 5 दिसम्बर 1955 ।

काव्य-संग्रह : आहंग

मजाज़ उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव रुदौली में 19 अक्टूबर की शाम सन् 1911 को पैदा हुए । अदबी सूरज जो उगा, चमका, जला और एक रोज़ बुझ भी गया और बुझकर अदब के एक झरोखे को तीरगी दे गया। मजाज़ लखनवी, 20वीं सदी का वो शायर जिसने इन्क़लाब को नया ज़ाविया दिया और इश्क-ओ-मुहब्बत की भी एक अनोखी दास्तान लिखी । अपनी ज़िन्दगी से सवाल किये, जो शाइरी में तब्दील हो गये । मिजाज़ से रोमानी होने के बावजूद उनकी शाइरी में तरक़्क़ी-पसन्दी के अनासिर मौजूद रहे हैं। मुनासिब अलफाज़ का चुनाव और ज़बान की रवानी ने उनकी शाइरी को मकबूले-आम बनाने में अहम रोल अदा किया है । उन्होंने बहुत कम लिखा, लेकिन जो भी लिखा उससे उन्हें काफ़ी शोहरत मिली ।

 

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