आलोचक की हैसियत बीज की-सी है और जब मुझे बीज भाषण देने का अवसर मिला है तो निराला की एक बहुत पुरानी कविता याद आती है-'हिन्दी के सुमनों के प्रति'- जिसमें दो पंक्तियाँ हैं : 'फल के भी उर का कटु त्यागा/ मेरा आलोचक एक बीज'। आलोचक की हैसियत बीज की-सी ही है। इस पूरे सांग रूपक में अगर आप देखें-तो पेड़, फल, फूल तो हैं लेकिन आलोचक की जगह उस बीज की तरह है, जो सबसे नीचे रहता है, ज़मीन के अन्दर रहता है, पद हल में विराजता है। वे तो आकाश पूजन करने वाले हैं और बड़ी ऊँचाइयों को छूते हैं, लेकिन यह जो बीज है, रहता है फल के हृदय में ही। फल मीठा होता है, बीज कड़वा होता है। फल कोमल होता है, बीज कठोर होता है। याद करें-आम की गुठली। अब विडम्बना यह है कि आलोचक का जो बीज भाषण है, उसे कड़वा होना ज़रूरी है। यह उसकी प्रकृति है। अब तक के भाषणों में थ्योरी पर ही मुख्य बल है। ऐसा मालूम होता है जैसे भारत में भी हम चाहते हैं कि यह पूरा युग 'एज ऑफ़ थिअरी' के नाम से जाना जाये जैसे अमरीका में किसी समय 'एज ऑफ़ क्रिटिसिज़्म' हुआ था। ख़तरा यही है- 'थ्योरी' की भूख माँग की आकांक्षा ! पश्चिम के दो दशक ‘थ्योरीज' के हैं। हर कोई जानता है कि इस बीच जितनी 'थ्योरी' आयी है, उसकी प्रयोगशाला फ्रांस है और उसका कारख़ाना अमरीका के विश्वविद्यालय हैं। दुनिया भर के जो नाम आते हैं-फूको, लाकाँ, देरिदा वगैरह यहीं से हैं। कुछ चीजें होती हैं जो पैदा कहीं होती हैं, लेकिन शोभा उनकी अन्यत्र होती है। जैसे फ्रांस में पैदा हुईं और अमरीकी विश्वविद्यालय में छायी हुई हैं।.... - इसी पुस्तक से
"नामवर सिंह
जन्म-तिथि : 28 जुलाई, 1926 1
जन्म-स्थान : बनारस जिले का जीयनपुर नामक गाँव । प्राथमिक शिक्षा बगल के गाँव आवाजांपुर में। कमालपुर से मिडिल। बनारस के हीवेट क्षत्रिय स्कूल से मैट्रिक और उदयप्रताप कालेज से इंटरमीडिएट । 1941 में कविता से लेखक जीवन की शुरुआत। पहली कविता इसी साल ‘क्षत्रियमित्र' पत्रिका (बनास) में प्रकाशित। 1949 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए. और 1951 में वहीं से हिन्दी में एम.ए.। 1953 में उसी विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अस्थायी पद पर नियुक्ति। 1956 में पीएच.डी. (पृथ्वीराज रासो की भाषा)। 1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार। चुनाव में असफलता के साथ विश्वविद्यालय से मुक्त। 1959-60 में सागर विश्वविद्यालय (म.प्र.) के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर। 1960 से 1965 तक बनारस में रहकर स्वतन्त्र लेखन । 1965 में 'जनयुग' साप्ताहिक के सम्पादक के रूप में दिल्ली में। इस दौरान दो वर्षों तक राजकमल प्रकाशन (दिल्ली) के साहित्यिक सलाहकार । 1967 से 'आलोचना' त्रैमासिक के आजीवन प्रधान सम्पादक रहे। 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय (राजस्थान) के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर प्रोफ़ेसर के रूप में नियुक्त। 1971 में 'कविता के नये प्रतिमान' पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार। 1974 में थोड़े समय के लिए क.मा. मुं. हिन्दी विद्यापीठ, आगरा के निदेशक। उसी वर्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली) के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफ़ेसर के रूप में योगदान। 1987 में वहीं से सेवा-मुक्त। अगले पाँच वर्षों के लिए वहीं पुनर्नियुक्ति । आजीवन प्रोफ़ेसर एमेरिटस रहे। 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष । आठ वर्ष महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलाधिपति भी रहे। 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित ।
निधन : 19 फ़रवरी, 2019