Publisher:
Vani Prakashan

आत्मकथा की संस्कृति

In stock
Only %1 left
SKU
Aatmakatha Ki Sanskriti
Rating:
0%
As low as ₹285.00 Regular Price ₹300.00
Save 5%

यह किताब हिन्दी समाज में आत्मकथा-सम्बन्धी बहस के समारम्भ की एक कोशिश है। शायद इस विधा के दरवाज़े पर आलोचना की पहली दस्तक ।
सामाजिक जीवन की जटिलता और रहस्यमयता-उसके दुख के अँधेरे कोनों और उसके सुख के निभृत स्रोतों की संश्लिष्ट दुनिया के साक्षात्कार तक हमें आत्मकथा ही ले जा सकती है। आत्मकथा का विग्रह करें तो पायेंगे कि आत्म अपना है और कथा सबकी है। दोनों के संघात से वह चीज़ तैयार होती है, जिसे हम इतिहास का मर्म कह सकते हैं। इस मर्म की प्रामाणिक रचना के लिए कलात्मक प्रतिभा से ज्यादा निश्छल मनुष्यता की ज़रूरत है।
इसलिए आत्मकथा कोई भी लिख सकता है और कैसे भी वह कही जा सकती है। इस अर्थ में वह सर्वाधिक लोकतांत्रिक विधा है। इसीलिए सर्वाधिक परिवर्तनकामी भी। ...मसलन् सदियों से हमारी पुरुषवादी और सवर्ण-वर्चस्ववादी संस्कृति की सबसे ज्यादा प्रताड़ना स्त्रियाँ और दलित जन सहते आ रहे हैं। आज यही लोग आत्मकथा के ज़रिए अपने दारुण अनुभवों का विषण्ण संसार उद्घाटित करेंगे, तो हमारा भाव-लोक भी बदलेगा और हमारा वस्तु-जगत् भी। ...आत्मकथा इसी दुहरी क्रान्ति की कामना से जन्म लेती है-वह साहित्यिक संस्कृति और सामाजिक संस्कृति को एक साथ बदलने का काम करती है।
इस पुस्तक में आत्मकथा की विशिष्ट सांस्कृतिक भूमि और भूमिका को समझने का प्रयत्न है। भारतीय परंपरा में आत्मकथा के अभाव के कारणों और उसकी उपस्थिति के रूपों की पड़ताल है। 1995 में छपी हिन्दी की पहली दलित आत्मकथा अपने अपने पिंजरे की विवेचना भी। इस संदर्भ में उग्र की अपनी ख़बर अनेक दृष्टियों से आत्मकथा की संस्कृति का आदर्श कही जा सकती है। इसलिए उसकी विशेषताओं का बहुआयामी विश्लेषण किया गया है। उग्र का जीवन-संघर्ष और उनका रचना-संघर्ष आपस में इस क़दर घुले-मिले हैं कि वे एक-दूसरे के पर्याय ही हैं। उनकी आत्मा में जो उद्वेलन था, वही उनके लेखन का सात्विक आक्रोश है। सच पूछिये तो उनके अत्यन्त प्रिय रचनाकार ग़ालिब की ये पंक्तियाँ उनके यहाँ चरितार्थ हुई दिखती हैं-
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल,
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है।

ISBN
Aatmakatha Ki Sanskriti
Publisher:
Vani Prakashan
More Information
Publication Vani Prakashan
पंकज चतुर्वेदी (Pankaj Chaturvedi)

पंकज चतुर्वेदी पंकज चतुर्वेदी का जन्म 24 अगस्त, 1971 को उत्तर प्रदेश के इटावा शहर में हुआ। इटावा और कानपुर के गाँवों-क़स्बों में आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट हुए। आगे की पढ़ाई और शोधकार्य जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से किया। इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं—‘एक सम्पूर्णता के लिए’, ‘एक ही चेहरा’, ‘रक्तचाप और अन्य कविताएँ’ (कविता-संग्रह); ‘आत्मकथा की संस्कृति’, ‘निराशा में भी सामर्थ्य’, ‘रघुवीर सहाय’ (साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के लिए विनिबन्ध), ‘जीने का उदात्त आशय’ (आलोचना); भर्तृहरि के इक्यावन श्लोकों की हिन्दी अनुरचनाएँ। इन्होंने मंगलेश डबराल की ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ का सम्पादन भी किया है। इन्हें कविता के लिए वर्ष 1994 के ‘भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’ और आलोचना के लिए 2003 के ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान के ‘रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया है। 2019 में इन्हें ‘रज़ा फ़ेलोशिप’ प्रदान की गई है। फ़ि‍लहाल विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म कॉलेज (कानपुर) में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हैं। सम्पर्क : pankajgauri2013@gmail.com

Write Your Own Review
You're reviewing:आत्मकथा की संस्कृति
Your Rating
कॉपीराइट © 2025 वाणी प्रकाशन पुस्तकें। सर्वाधिकार सुरक्षित।

Design & Developed by: https://octagontechs.com/