आत्मकथा की संस्कृति
यह किताब हिन्दी समाज में आत्मकथा-सम्बन्धी बहस के समारम्भ की एक कोशिश है। शायद इस विधा के दरवाज़े पर आलोचना की पहली दस्तक ।
सामाजिक जीवन की जटिलता और रहस्यमयता-उसके दुख के अँधेरे कोनों और उसके सुख के निभृत स्रोतों की संश्लिष्ट दुनिया के साक्षात्कार तक हमें आत्मकथा ही ले जा सकती है। आत्मकथा का विग्रह करें तो पायेंगे कि आत्म अपना है और कथा सबकी है। दोनों के संघात से वह चीज़ तैयार होती है, जिसे हम इतिहास का मर्म कह सकते हैं। इस मर्म की प्रामाणिक रचना के लिए कलात्मक प्रतिभा से ज्यादा निश्छल मनुष्यता की ज़रूरत है।
इसलिए आत्मकथा कोई भी लिख सकता है और कैसे भी वह कही जा सकती है। इस अर्थ में वह सर्वाधिक लोकतांत्रिक विधा है। इसीलिए सर्वाधिक परिवर्तनकामी भी। ...मसलन् सदियों से हमारी पुरुषवादी और सवर्ण-वर्चस्ववादी संस्कृति की सबसे ज्यादा प्रताड़ना स्त्रियाँ और दलित जन सहते आ रहे हैं। आज यही लोग आत्मकथा के ज़रिए अपने दारुण अनुभवों का विषण्ण संसार उद्घाटित करेंगे, तो हमारा भाव-लोक भी बदलेगा और हमारा वस्तु-जगत् भी। ...आत्मकथा इसी दुहरी क्रान्ति की कामना से जन्म लेती है-वह साहित्यिक संस्कृति और सामाजिक संस्कृति को एक साथ बदलने का काम करती है।
इस पुस्तक में आत्मकथा की विशिष्ट सांस्कृतिक भूमि और भूमिका को समझने का प्रयत्न है। भारतीय परंपरा में आत्मकथा के अभाव के कारणों और उसकी उपस्थिति के रूपों की पड़ताल है। 1995 में छपी हिन्दी की पहली दलित आत्मकथा अपने अपने पिंजरे की विवेचना भी। इस संदर्भ में उग्र की अपनी ख़बर अनेक दृष्टियों से आत्मकथा की संस्कृति का आदर्श कही जा सकती है। इसलिए उसकी विशेषताओं का बहुआयामी विश्लेषण किया गया है। उग्र का जीवन-संघर्ष और उनका रचना-संघर्ष आपस में इस क़दर घुले-मिले हैं कि वे एक-दूसरे के पर्याय ही हैं। उनकी आत्मा में जो उद्वेलन था, वही उनके लेखन का सात्विक आक्रोश है। सच पूछिये तो उनके अत्यन्त प्रिय रचनाकार ग़ालिब की ये पंक्तियाँ उनके यहाँ चरितार्थ हुई दिखती हैं-
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल,
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है।
Publication | Vani Prakashan |
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