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आधुनिक भारत की द्वन्द कथा

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Adhunik Bharat Ki Dwandwa Katha
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आधुनिक भारत की द्वन्द्व-कथा - 
इस पुस्तक में राज्य के वर्चस्व के विखंडन से निकली प्रभुत्व तथा प्रतिरोध की दंडात्मकता की सैद्धान्तिक अवधारणा की कसौटी पर मैंने औपनिवेशिक तथा उत्तर-औपनिवेशक भारतीय समाज के अनुभवों को परखा है। इससे राज्य और समाज के सम्बन्धों की बहुआयामी अन्तव्यप्ति का खुलासा हुआ है। इस विखंडन के माध्यम से भारत में राज्य की वर्चस्व परियोजना की जटिलता उभरकर सामने आती है। भूलना नहीं चाहिए, कि लगभग साठ वर्षीय स्वतन्त्र राज्य संघटना की जड़ें दो सौ वर्षों की औपनिवेशिक विरासत और हज़ारों वर्षों पहले की प्राचीन तथा मध्ययुगीन उपमहाद्वीपीय साम्राज्यों की परम्परा के दाय में मौजूद हैं। राज्य की वर्धस्वधर्मी परियोजनाओं, उपकरणों और प्रक्रियाओं की समस्याओं पर नज़र डालने से, उन तमाम छिपे रहस्यों पर से पर्दा उठा है तो सत्ता-सम्बन्धों की सामाजिक सच्चाइयों में बहुस्तरीय मानव-संघर्ष से जुड़े हैं। इस सैद्धान्तिक अवधारणा से मुझे इस बात में मदद मिली, कि में औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक भारत में बुनियादी 'संरचनात्मक' रूपान्तरण के बिना राज्य और समाज के कर्मोपयोगी रूपान्तरण की मूल समस्या का उद्घाटन कर सकूँ। औपनिवेशिक शासन के आरम्भिक दौर में इंग्लैंड के औद्योगीकरण और भारत के निरौद्योगीकरण की द्वन्द्वात्मकता, औपनिवेशिक शासन के आख़िरी दौर में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद की द्वन्द्वात्मकता और उत्तर-औपनिवेशिक भारत में पूँजी के भूमंडलीकरण और समुदाय के स्थानीयकरण की द्वन्द्वात्मकता- ये सब, विभिन्न ऐतिहासिक निर्णायक मोड़ों पर इस मूल समस्या तथा प्रभुत्व और प्रतिरोध की द्वन्द्वात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं।
इस पुस्तक में मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, सत्ता-सम्बन्धों की सामाजिक तस्वीर और साफ़ होती गयी। इससे औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय जीवन की ऐसी समग्र स्वर-रचना उभरती है जिसमें वह संस्कृति और राजनीति, ज्ञान और सत्ता, विमर्श और नियन्त्रण, प्रभुत्व और प्रतिरोध तथा दमन और मुक्ति के प्रश्नों से तरह-तरह से जूझ रहा है। मैंने वर्चस्व की पहले से तय 'खोज' करने के बजाय प्रतिरोध और संघर्ष के विविध स्थलों पर नज़र डाली है। प्रभुत्व और प्रतिरोध के इस विशद आख्यान की अपनी लय है, दरारें और विघटन हैं, अन्तराल और अन्तर्विरोध हैं, असंगतियों और आकस्मिकताएँ हैं। इन्हीं के बीच से शक्ति संघर्ष की दास्तान की सच्चाई तो प्रकट होती ही है, साथ ही वर्चस्व की दमनकारी नीतियाँ और वर्चस्वविरोधी प्रतिरोध की गतिविधियाँ भी उजागर होती चलती हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि इस प्रक्रिया में प्रतिरोध की स्थितियों के ऐतिहासिक और सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ की अनदेखी नहीं की गयी है। ग्राम्शीय विश्लेषण पद्धति के प्रति मेरे आकर्षण का तर्क यही है कि वह विशिष्टताओं, अनिश्चितताओं और जटिलताओं का विश्लेषण करते हुए राज्य के जीवन को निर्मित की ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखता है, जो अस्थायी सन्तुलनों को पछाड़ती हुई निरन्तर गतिशील रहती है। विचार विश्लेषण की इस प्रक्रिया में, आधुनिक भारत का अतीत पृष्ठभूमि में खिसक गया है। और वर्तमान अधिक स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप में उभरकर सामने आया है। पहले अध्याय में मेरे इस कथन का कि? "... यह पुस्तक वर्तमान को समझने के लिए अतीत का उत्खनन है," यही आशय था। ग्राम्शी ने भी कहा है, "यदि वर्तमान को बदलना चाहते हो, तो वह जैसा भी है, उसी प्रचंड रूप में उसके यथार्थ को उद्घाटित करना अत्यन्त आवश्यक है।"

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शिव नारायण सिंह अनिवेद (Sheo Narayan Singh Anived)

शिव नारायण सिंह अनिवेद - 
जन्म : 18 अक्टूबर, 1961।
उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के ओघनी ग्राम में जन्मे वरिष्ठ प्रशासक श्री शिव नारायण सिंह अनिवेद ने कला-संस्कृति की दुनिया में अपनी पहचान चित्रकार-कवि के साथ ही, एक गम्भीर समाज-संस्कृति समीक्षक तथा रैडिकल चिन्तक के रूप में क़ायम की है। वे अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा के लिए जितने सराहे गये उतने ही सामाजिक-वैचारिक प्रश्नों पर सार्थक हस्तक्षेप के लिए भी। चित्रकला के लिए उन्हें ललित कला अकादेमी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। 'कॉस्मिक सेलिब्रेशन' तथा 'डीकंस्ट्रक्टिंग द हेजेमनी आफ़ द स्टेट डायलेक्टिक्स आफ़ डॉमिनेशन एण्ड रेजिस्टेंस' से उनकी दो पुस्तकें पहले प्रकाशित हो चुकी हैं। इसी के साथ हिन्दी तथा अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-सांस्कृतिक वैचारिक विषयों पर उनके अनेक लेख भी प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही वे देश-विदेश में अनेक एकल तथा सामूहिक चित्रकला प्रदर्शनियों, काव्यपाठों तथा सेमिनारों में भाग ले चुके हैं। श्री अनिवेद, मानव संसाधन विकास मन्त्रालय, संस्कृति विभाग, भारत सरकार में उपसचिव भी रह चुके हैं।

 

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