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आख़िर कब तक

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आख़िर कब तक - 
'मैं जानता हूँ कि समय की क्या वास्तविकता है। बड़े-बड़े आदर्शवादी शिक्षकों को मैं देख चुका हूँ। बेचारे इस महँगाई में छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए तरसते रहते हैं। मैंने अपने कई मित्रों को समझाया है कि ज़्यादा आइडियल बनने की ज़रूरत नहीं। मास्टरी के साथ दूसरे धन्धे भी कर लेने चाहिए। लोगों की आलोचना पर ज़्यादा कान देने का मतलब है, अपने को दुःखी करना। आदर्श के कोहरे में भटक-भटक कर मैं अपने को दुःखी करता रहूँ, यह मुझे पसन्द नहीं। हर आदमी को अच्छा घर चाहिए, बढ़िया वस्त्र चाहिए और स्वादिष्ट भोजन चाहिए। सुख इसी को कहते हैं। दुःख भोगने कोई नहीं आता इस संसार में।'

इस स्कूल में सोलह मास्टर हैं। इन सोलह में केवल पाँच मास्टर मास्टरी पेशे के लायक हैं। बाकी लोग अपने दिन काटने आये हैं। कोई राजनीति की शतरंज खेलने आया है। कई इस नौकरी को पेंशन मानकर आया है। कोई थोथे यश की लिप्सा लिए छात्रों के बीच गाना-बजाना और नाटक नौटंकी करने आया है। एक मास्टर कहते हैं कि वे पत्थर की तरह लुढ़कते हुए आकर यहाँ थम गये हैं।
-(इसी उपन्यास से)

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रमाशंकर श्रीवास्तव (Rama Shanker Srivastava)

"रमाशंकर श्रीवास्तव - जन्म : पचरूबी (सीवान) बिहार, 19 जून, 1936 शिक्षा : पीएच. डी. (पटना विश्वविद्यालय)। कार्यस्थल रीडर, हिन्दी विभाग, राजधानी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)। उपन्यास : किसिम-किसिम के लोग, उनका अपना मन, एक टुकड़ा ज़मीन, एक थी अनु, दूसरा प्रस्ताव, बोलती क्यों नहीं, फिर कभी। "

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