ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित तमिल के मूर्धन्य कथाकार एवं अपनी पीढ़ी के अप्रतिम गद्यकार डी. जयकान्तन तमिल साहित्य के अधुनातन सव्यसाची कहे जाते हैं। 'शिरुकदै मन्नन' (कहानी सम्राट) की उपाधि से अलंकृत डी. जयकान्तन की धारा के विरुद्ध चलनेवाले लेखक के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति है। सतत संघर्ष के बावजूद उनके लेखन की धार कभी कुन्द नहीं हुई बल्कि समय के साथ और प्रखर होती गयी है।
गम्भीर सामाजिक सरोकार को साहित्य का लक्ष्य मानने वाले जयकान्तन के लेखन का मुख्य स्वर मनुष्य की बेहतरी है। मनुष्य की जय यात्रा और मानवता की विजय के प्रति वे आस्थाशील रहे हैं। उनकी रचनाएँ न सिर्फ़ दरिद्रों के प्रति सहानुभूति दर्शाती हैं बल्कि समस्याओं की तह में जाकर उनका समाधान ढूँढ़ने के लिए भी जूझती हैं।
विषय-वैशिष्ट्य, कथ्य-वैविध्य और शिल्प की विलक्षणता जयकान्तन के साहित्य को असाधारण बनाती है। यहाँ प्रकाशित अपनी सर्वश्रेष्ठ चौदह कहानियों का चयन लेखक ने स्वयं किया है तथा तमिल और हिन्दी के वरिष्ठ अनुवादक द्वय ह. बालसुब्रह्मण्यम और र. शॉरिराजन ने इन कहानियों का अनुवाद किया है। हिन्दी के अपने स्वाभाविक मुहावरे में किया गया यह अनुवाद रचना के मूल पाठ का आस्वाद देता है।
श्रेष्ठ साहित्य-प्रकाशन की परम्परा का निर्वाह करते हुए जयकान्तन की इस पुस्तक का प्रकाशन कर भारतीय ज्ञानपीठ गौरव का अनुभव करता है।
"डी. जयकान्तन -
जन्म: 2 मई, 1934, कडलूर (तमिलनाडु)।
डी. जयकान्तन की अब तक लगभग दौ सौ कहानियाँ, चालीस उपन्यास और पन्द्रह निबन्ध-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें मालै मयक्कम् (1962), युगसन्धि (1963), सुय दरिशनम् (1967), गुरुपीठम् (1971), अधूरे मनुष्य (1989), (कहानी-संग्रह); उन्नैप्पो आरुवन (1964), सिल नेरंगलिल चित मनिदर्गल (1970), ओरु मनिदम् ओरु वीडु ओरु उलगम (1973), सुन्दरकाण्डम् (1982), ईश्वर अल्ला तेरे नाम (1983) (उपन्यास); निनैलु पाक्किटेन (1973) भारती पाठम् (1974), नटपिल पून मलर्गल (1986) (निबन्ध संग्रह) आदि काफ़ी चर्चित रहे हैं। उनकी कई कृतियों पर फ़िल्में बन चुकी हैं और कई रचनाओं का अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, जापानी और युक्रेनी भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
सम्मान पुरस्कार: साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1972), सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार (1978), श्रेष्ठ उपन्यास के लिए तमिलनाडु सरकार पुरस्कार (1986), तमिल विश्वविद्यालय का 'राजराजन पुरस्कार' (1986), साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता (1996) आदि सम्मानों से विभूषित और भारतीय साहित्य में समग्र योगदान के लिए वर्ष 2002 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।
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