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Vani Prakashan
असम्भव सारांश
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Asambhav Saransh
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"आशुतोष दुबे की कुछ कविताओं में प्रथमदृष्ट्या ही वह दिखाई दे जाता है जो उन सरीखे जागरूक कवि में अप्रत्याशित नहीं है-कवि-कर्म या काव्य-कला (ars poetica) की दुविधाओं का अहसास । 'सारांश' कवि के जीवन और कृतित्व के मूल तत्त्व और परिणाम की व्याख्या इस संकेत से करती है कि पूरी ज़िन्दगी के राख हो जाने के बाद ही शायद पता चले कि कोई सृजेता किसी महाकाव्य का निष्कर्ष था या एक छोटी, नुकीली कविता का सारांश । उपलब्धि क्या है-महाकाव्यात्मक, या नावक के तीर जैसी कोई रचना? 'समस्यापूर्ति' में आशुतोष दुबे महाकाव्य और कविता के बाद उस एक पंक्ति पर आते हैं जो अप्रत्याशित की प्रतीक्षा में अपनी दूसरी सहेलियों की बाट जोह रही है जो उसे ('सार्थकता' देने के लिए) अपने उजाले और अँधेरे में ले जायेंगी। 'शब्द-पुरुष' में, जो सृजन-देवता ही हो सकता है, वे शब्दों की पीड़ा और उल्लास, सूझों-शिराओं में कौंधते-बहते दिक्काल के अजम्न विद्युत-प्रवाह तक पहुँचते हैं और अन्त में, 'विन्यास' में, वे, लीलामग्न शब्द से परे, सही या गलत जगहों पर लगे पूर्ण और अर्धविराम तथा बिन्दुओं जैसे शब्देतर चिह्नों और गिरती हुई अर्थ की छाया को देखते हैं। यदि इन कविताओं के निहितार्थों तक जायें तो आशुतोष दुबे महाकाव्य से लेकर विरामचिह्नों तक के, सृष्टि से लेकर सिकता-कण तक के और समष्टि से लेकर व्यष्टि तक के ऐसे कवि नज़र आते हैं जिसकी दृष्टि सकल से लेकर अंश तक है-या उसकी आकांक्षा ऐसा कवि बनने की है।
कवि की एकान्तिक, आत्मपरक या आत्मोन्मुख रचनाओं को वैसी कहने में इसलिए संकोच होता है कि इसका कोई भरोसा नहीं है कि वे कब किसी अन्य व्यक्ति, बृहत्तर समाज या विश्व को भी छू नहीं लेंगी। 'सुनना चाहता हूँ' में यदि वह डिम्ब शुक्राणु संवाद, चिड़िया-गुलमोहर संवाद, सूर्य-पत्ती संवाद सुनना चाहता है तो साथ ही वह भूख-निवाला संवाद और पुरखों की इत्मीनान-भरी साँस भी सुनना चाहता है। कुछ कविताओं में आख्याता ऐसा शिकारी है जो मृत हिरण को छोड़कर उसकी कुलाँचों की लय खोज रहा है, अप्रत्याशित के समुद्र पर थकी हुई चिड़िया की तरह पस्त हो रहा है, उदास मुस्कान और कातर संकल्प के साथ उखड़ा हुआ खुद को रोप रहा है, अपनी पतंग को अपनी ही डोर से काट रहा है और अपने पाताल में लौटता है क्योंकि वहीं जड़ें पुनर्नवा होती हैं, और जो समुद्र की सतह से बहुत नीचे दबा है वह अचानक एक कौंध से उछल आता है और शब्दों की आँच बढ़ा देता है। एक भयाकीर्ण ज़िन्दगी में एक विपन्न जीवन के विपन्न भय भी हैं लेकिन वे अपनी संजीवन उँगलियों से उसके विभक्त हिस्सों को दुबारा जोड़ भी देते हैं। बहुआयामिता, स्वरवैविध्य, स्तरबहुल अस्तित्व-चेतना, जटिलता तथा गहनतर प्रतिबद्धता जैसी अवधारणाओं को नये अर्थ देती हुई आशुतोष दुबे की कविताएँ कभी-कभी इन प्रत्ययों को पीछे छोड़कर कुछ दूसरे सोचने या गढ़ने को बाध्य-प्रेरित करती लगती हैं। उनकी कुछ कविताओं में कहीं एक निजी मिथक-रचना है तो कहीं वे पुराणों, अभिज्ञानशाकुन्तल, शूद्रक, सेतिस आदि के संसार में प्रवेश करते हैं। 'सर्गारम्भ' जैसी रचना सृष्टि और मानव के आदिम युग से शुरू होकर प्रलय, वट-वृक्ष, शिव, सप्तर्षि, सुदूर-ग्रह, गरुड-पुराण, कालिदास, बावड़ी, ध्वज, दीपस्तम्भ, सिद्ध पुरुष, प्रातःस्नान करती काँपती बुढ़िया आदि के कालातीत, प्राचीन तथा साम्प्रतिक आयामों को छूती है और अमर्त्य ऋषि मार्कण्डेय से लेकर मुक्तिबोध-विनोद कुमार शुक्ल तक की कई ध्वनियाँ-स्मृतियाँ लिए हुए है। कहीं और पिछले जन्म की कौंध में कवि अपने भ्रूण होने से प्रारम्भ कर एक प्रसन्न स्त्री से प्रेम करने के सोपान मानो पल भर में जी लेता है लेकिन यह भी जानता कि एक दिन हमें अपने क्लान्त अन्त तक कैसे पहुँचना है। इस तरह के निजी संक्रमण एक बृहत्तर विश्व और अवकाश के अंश हैं जिनमें बीज, प्राणी, मनुष्य, जीवाश्म, थका हुआ गुरुत्वाकर्षण, जगमगाते खद्योत और पल भर के लिए थमती समय की साँस है।
जब आशुतोष दुबे हमसे यह देखने को कहते हैं कि पाठक की निगाह से देखने पर चीज़ें कैसे बदलती हैं तो दरअसल वे हमें यह बताना चाहते हैं कि कवि मूलतः पाठक होता है और पहले उसकी दृष्टि चीज़ों को बदलती है और जब कविता का सामान्य पाठक, यदि वह कहीं है तो, अपनी दृष्टि और अनुभव से कविता पढ़ता है तो चीजें और बदलती हैं, दृष्टि और अनुभव सहित । अपनी विनम्रता में कवि कहता है कि मैंने भाषाओं के भोज से बचा-खुचा चुराया है, और पुराने शब्दों को नये बाने पहनाये हैं, और जो ख़र्चा जा चुका है उसी को ख़र्च रहा हूँ लेकिन सच यह है कि उसने अपनी कविताओं में निजी और सामाजिक रिश्तों, पारिवारिक सम्बन्धों, इस देश में अपनी, लोगों की और राजनीति की हालत को भी ऐसी निगाह से देखा है जिसमें वस्तुपरकता, करुणा, अवसाद, सहानुभूति, व्यंग्य, पश्चात्ताप और अपराध-बोध हैं और उन्हें ऐसी भाषा और शैली में अभिव्यक्ति दी है जिनका अनूठापन, संयम, सुतीक्ष्णता और वैविध्य अचम्भे में डालते हैं।
ये कविताएँ वे विस्मृत गुप्त अक्षर हैं जो नये द्वार खोलते हैं और इनकी ध्वनि की काया में अगणित आत्माएँ बसती हैं। इनमें से अनेक गहरी व्याख्या की माँग करती हैं। अलग-अलग और एक साथ इनमें स्वरबाहुल्य और सिम्फ़नीय तत्त्व है जो सभी-कुछ को देखता, महसूसता और बखानता चलता है। भारतीय परम्परा, संस्कृति और जीवन से प्रेरित ये कविताएँ एक वैश्विक दृष्टि लेकर चलती हैं जिससे ब्रह्माण्ड की गुत्थियों से लेकर भूख, ग्रीबी, अन्याय, गैर-बराबरी, पर्यावरण, अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार, सामूहिक आकांक्षाएँ, बच्चे, स्त्रियाँ आदि अछूते नहीं रहे हैं। हिन्दी में. इस समय पचास वर्ष की आयु के आसपास और उससे छोटे कई समर्थ और प्रखर कवि हैं जिन्होंने अपने दूसरे अनेक समवयस्कों और वरिष्ठों के लिए कवि-कर्म कठिन बना डाला है और उनमें से कुछ को तो अप्रासंगिक और निस्तेज-सा कर दिया है। आशुतोष दुबे उन्हीं सक्षम कवियों में हैं जो अपने कृतित्व में जीवन के सारांश को चरितार्थ कर रहे हैं लेकिन उनकी उपलब्धियों को सारांश रूप में बखान पाना असम्भव-सा बनाते जा रहे हैं।
-विष्णु खरे"
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