लोक शब्द व्यंजक है। इसका अर्थ है- (लोक में रहने वाले लोग अथवा जन। उनका आचरण, विश्वास, नित्य एवं नैमित्तिक क्रियाएँ एवं घटनाएँ और समष्टिगत शिवात्मक अथवा मांगलिक अनुष्ठान और सामूहिक जागरण के वे सब कार्य जो समाज सापेक्ष हों। जो कुछ जन-सामान्य में व्याप्त है और उसके व्यवहार का आधार एवं निदर्शन है, वह सब लोक के अन्तर्गत आता है। जिस समाज में हम रहते हैं, वह लोक जीवन से समुद्भूत है। ‘लोकमेवाधारं सर्वस्य' अर्थात् लोक ही सबका आधार है (स्वोपज्ञ)। लोक स्थायी है। आश्रय भूत है। लोक समष्टि (समूह) में है। लोक समग्र है, चिरन्तन है। लोक स्वायत्त है। इसीलिए लोक सत्यासत्य की तुला है। 'लोक' ही सभी शास्त्रों का बीज है। लोक की अकल्पनीय शक्ति है। आज लोक की तमाम शब्दावली शास्त्रीय भाषाओं को संजीवनी प्रदान करने की सामर्थ्य रखती है। हिन्दी अथवा कोई भी भारतीय भाषा अपनी अभिव्यक्ति के नवाचार में लोक की ओर ही अभिमुख होती है। इसीलिए जहाँ शास्त्र निर्णय नहीं कर सका है, वहाँ वैयाकरणों ने लोक को प्रमाण मानकर समाधान प्रस्तुत किया है।
प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल का जन्म 13 जुलाई, 1953, ग्राम मध्पू का पुरा, पो. बराव, तहसील करछना, जिला इलाहाबाद (उ.प्र.) में हुआ। इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं - रामचरितमानस के शब्दों का अर्थतात्विक अध्ययन, अवधी का स्वनिमिक अध्ययन, मध्यकालीन कविता का पाठ, भाषिक औदात्य, विद्यापति, अनुबन्ध, रंगसप्तक, अवधी साहित्य की भूमिका, अवधी साहित्य के आधार स्तम्भ, अवधी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, हिन्दी भाषा का आधुनिकीकरण एवं मानकीकरण, हिन्दी कम्प्यूटिंग, हेमचन्द शब्दानुशासन, समीक्षक आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, भारतीय बाल साहित्य की भूमिका, साहित्यशास्त्र के सौ वर्ष, कालिदास पर्याय कोश (दो खंड), हिन्दी भाषा संरचना, इंग्लिश लेंग्वेज एंड इंडियन कल्चर, उद्यमिता विकास, हिन्दी भाषा और विज्ञान बोध (द्वि.सं.), पर्यावरणीय अध्ययन, इंग्लिश लेंग्वेज एंड साइंटिफिक टेम्पर, भाषा कौशल एवं व्यक्तित्व विकास, प्रयोजनमूलक हिन्दी, साहित्य का भोपाल सन्देश, साहित्य के शाश्वत प्रतिमान। प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल ने बुन्देली साहित्य का इतिहास, बघेली साहित्य का इतिहास, साहित्य के प्रतिमान का सम्पादन किया है। वर्तमान समय में - निदेशक, साहित्य अकादेमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद्, मुल्ला रमूजी संस्कृति भवन, बाणगंगा रोड, भोपाल।