"भारत में अंग्रेजी राज' पं. सुंदरलाल द्वारा लिखा गया स्वतंत्रता संग्राम का वह गौरव ग्रंथ है, जिसके 18 मार्च, 1938 को प्रकाशित होते ही 22 मार्च, 1938 को अंग्रेज सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया।
भारतीय इतिहास पर नई निगाह
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बौद्धिक प्रेरणा देने का श्रेय पं. सुंदरलाल, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सह-संस्थापक और प्रथम उप-कुलपति एवं ऑल इंडिया पीस काउंसिल ने अध्यक्ष, इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध वकील जैसे उन कुछ साहसी लेखकों को भी है, जिन्होंने पद या परिणामों की चिंता किए बिना भारतीय स्वाधीनता का इतिहास नए सिरे से लिखा 'भारत में अंग्रेजी राज' में गरम दल और नरम दल दोनों तरह के स्वाधीनता संग्राम योद्धाओं को अदम्य प्रेरणा दी।
सर्वज्ञात है कि 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम को सैनिक विद्रोह कहकर दबाने के बाद अंग्रेजों ने योजनाबद्ध रूप से हिंदू और मुसलिमों में मतभेद पैदा किया। 'फूट 'डालो और राज करो' की नीति के तहत उन्होंने बंगाल को दो हिस्सों-पूर्वी और पश्चिमी में विभाजित कर दिया। पं. सुंदरलाल ने इस सांप्रदायिक विद्रोह के पीछे छीपे अंग्रेजों की कूटनीति तक पहुँचने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने प्रामाणिक दस्तावेजों तथा विश्व इतिहास का गहन अध्ययन किया तो उनके सामने भारतीय इतिहास के अनेक अनजाने तथ्य खुलते चले गए। इसे बाद वे तीन साल तक क्रांतिकारी बाबू नित्यानंद चटर्जी के घर पर रहकर दत्तचित्त होकर लेखन और पठन-पाठन के काम में लगे रहे। इसी साधना के फलस्वरूप एक हजार पृष्ठों का 'भारत में अंग्रेजी राज' नामक ग्रंथ तैयार हुआ।
इसकी विशेषता यह थी कि इसका अधिकतर हिस्सा पं. सुंदरलालजी ने खुद अपने हस्तलेख से नहीं लिखा। पचासों सहायक ग्रंथ पढ़-पढ़कर, संदर्भ देख-देखकर वे हाशप्रवाह बोलते थे और प्रयाग के श्री विशंभर पांडे उनके बोले शब्द लिखते थे। इस प्रकार इसकी पांडुलिपि तैयार हुई। पर तब इस तरह की किताब का प्रकाशन आसान नहीं था। सुंदरलालजी मानते थे कि प्रकाशित होते ही अंग्रेजी शासन इसे जब्त कर लेगा। अतः उन्होंने इसे कई खंडों में बाँटकर अलग-अलग भागों में छपवाया। तैयार खंडों को प्रयाग में बाईंड करवाया गया और अंततः 18 मार्च, 1938 को पुस्तक प्रकाशित की गई।"
"पण्डित सुन्दरलाल का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले की गाँव खतौली में 26 सितम्बर सन् 1885 को तोताराम श्रीवास्तव के घर में हुआ था। खतौली में गंगा नहर के किनारे बिजली और सिंचाई विभाग के कर्मचारी रहते थे। इनके पिता तोताराम श्रीवास्तव उन दिनों वहाँ उच्च सरकारी पद पर थे। उनके परिवार में प्रायः सभी लोग अच्छी सरकारी नौकरियों में थे। बचपन से ही देश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े देखकर उनके दिल में भारत को आज़ादी दिलाने का जज्बा पैदा हुआ। वह कम आयु में ही परिवार को छोड़ प्रयाग चले गये और प्रयाग को कार्यस्थली बनाकर आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े।
मुजफ़्फ़रनगर से हाईस्कूल करने के बाद सुन्दरलाल जी प्रयाग के प्रसिद्ध म्योर कॉलेज में पढ़ने गये। वहाँ क्रान्तिकारियों से सम्पर्क रखने के कारण पुलिस उन पर निगाह रखने लगी। गुप्तचर विभाग ने उन्हें भारत की एक शिक्षित जाति में जन्मा असाधारण क्षमता का युवक कहा, जो समय पड़ने पर तात्या टोपे और नाना फड़नवीस की तरह ख़तरनाक हो सकता है।
1907 में वाराणसी के शिवाजी महोत्सव में 22 वर्षीय सुन्दरलाल ने ओजस्वी भाषण दिया। यह समाचार पाकर कॉलेज वालों ने उसे छात्रावास से निकाल दिया। इसके बाद भी उन्होंने प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। अब तक उनका सम्बन्ध लाला लाजपतराय, लोकमान्य तिलक, अरविन्द घोष तथा रासबिहारी बोस जैसे क्रान्तिकारियों से हो 'चुका था। दिल्ली के चाँदनी चौक में लार्ड हार्डिंग की शोभायात्रा पर बम फेंकने की योजना में सुन्दरलाल जी भी सहभागी थे।
उनकी प्रखर लेखनी ने 1914-15 में भारत की सरज़मीं पर गदर पार्टी के सशस्त्र क्रान्ति के प्रयास और भारत की आज़ादी के लिए ग़दर पार्टी के क्रान्तिकारियों के अनुपम बलिदानों का सजीव वर्णन किया है। लाला हरदयाल के साथ पण्डित सुन्दरलाल ने समस्त उत्तर भारत का दौरा किया था। 1914 में शचीन्द्रनाथ सान्याल और पण्डित सुन्दरलाल एक बम परीक्षण में गम्भीर रूप से जख्मी हुए थे।
उत्तर प्रदेश में क्रान्ति के प्रचार हेतु लाला लाजपतराय के साथ सुन्दरलाल जी ने भी प्रवास किया। कुछ समय तक उन्होंने सिंगापुर आदि देशों में क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रचार किया। इसके बाद उनका रुझान पत्रकारिता की ओर हुआ। उन्होंने पण्डित सुन्दरलाल के नाम से 'कर्मयोगी' पत्र निकाला। इसके बाद उन्होंने अभ्युदय, स्वराज्य, भविष्य और हिन्दी प्रदीप का भी सम्पादन किया। ब्रिटिश अधिकारी कहते थे कि पण्डित सुन्दरलाल की क़लम से शब्द नहीं बम-गोले निकलते हैं। शासन ने जब प्रेस एक्ट की घोषणा की, तो कुछ समय के लिए ये पत्र बन्द करने पड़े। इसके बाद वे भगवा वस्त्र पहनकर 'स्वामी सोमेश्वरानन्द' के नाम से देश भर में घूमने लगे। इस समय भी क्रान्तिकारियों से उनका सम्पर्क निरन्तर बना रहा और वे उनकी योजनाओं में सहायता करते रहे। सन् 1921 से 1942 के दौरान उन्होंने गाँधी जी के सत्याग्रह में भाग लेकर 8 बार जेल की यात्रा की।
इतनी व्यस्तता और लुकाछिपी के बीच उन्होंने अपनी पुस्तक भारत में अंग्रेज़ी राज प्रकाशित कराई। पुस्तक 18 मार्च 1928 को प्रकाशित होते ही 22 मार्च को अंग्रेज़ सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दी गयी। इसका जर्मन, चीनी तथा भारत की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। पुस्तक के दो खण्डों में सन् 1661 ई. से लेकर 1857 ई. तक के भारत का इतिहास संकलित है। यह अंग्रेजों की कूटनीति और काले कारनामों का खुला दस्तावेज़ है, जिसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए लेखक ने अंग्रेज़ अधिकारियों के स्वयं के लिखे डायरी के पन्नों का शब्दशः उद्धरण दिया है।
गणेशशंकर विद्यार्थी को पण्डित जी से बहुत प्रेरणा मिली थी। अपने अध्ययन एवं लेखन के दौरान पण्डित गणेशशंकर की भेंट पण्डित सुन्दरलाल जी से हुई और उन्होंने उनको हिन्दी में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। पण्डित सुन्दरलाल ने ही पण्डित गणेशशंकर को 'विद्यार्थी' उपनाम दिया जो आगे चलकर उनके नाम में हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ गया।
1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद गाँधी जी के आग्रह पर विस्थापितों की समस्या के समाधान के लिए वे पाकिस्तान गये। 1962-63 में 'इंडियन पीस काउंसिल' के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई देशों की यात्रा की। 95 वर्ष की आयु में 8 मई, 1981 को दिल्ली में हृदयगति रुकने से उनका देहान्त हुआ। जब कोई उनके दीर्घ जीवन की कामना करता था, तो वे हँसकर कहते थे-
होशो हवास ताबे तबां, सब तो जा चुके ।
अब हम भी जाने वाले हैं, सामान तो गया ॥"