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भारतीय उपमहाद्धीप की त्रासदी : सत्ता साम्प्रदायिकता और विभाजन

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"भारतीय उपमहाद्वीप की त्रासदी - 1857 के विद्रोह को सख्ती से कुचल देने के बाद अंग्रेज़ों ने फ़ोर्टविलियम कॉलेज की सोची-समझी मेकाले रणनीति के तहत बौद्धिक अस्त्र को अपनाया और यहाँ के लोगों की मानसिकता को बदलने के बहुआयामी अभियान चलाये और कुछ दिनों के बाद ही वे अपने मकसद में पूरी तरह क़ामयाब हुए। फोर्टविलियम स्कूल के शिक्षित, दीक्षित और प्रोत्साहन प्राप्त लेखकों और इतिहासकारों ने अंग्रेज़ों की नपी-तुली नीतियों के तहत ऐसे काल्पनिक तथ्यों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रसारित-प्रचारित किया - जो ज़्यादातर तथ्यहीन थे। समय बीतने के साथ जो मानसिकता विकसित हुई, उस माहौल में 'हाइट मेन्स बर्डन' की साज़िशी नीति सफल हो गयी। उन लेखकों और इतिहासकारों ने जो भ्रमित करते तथ्य परोसे, उनको सही मान लेने की वजह से हिन्दुस्तानियों की दो महत्त्वपूर्ण इकाइयों के बीच कटुता की खाई बढ़ती गयी। हिन्दुस्तान पर क़बीलाई हमलों का सिलसिला बहुत लम्बा रहा है। उसी क्रम में मुसलमानों के हमले भी हुए। उनकी कुछ ज़्यादतियाँ भी अवश्य रही होंगी, क्योंकि विश्व इतिहास का मध्यकालीन युग उसके लिए विख्यात है। उन हमलों की दास्तानों को प्राथमिकता देते हुए बुरी नीयत से ख़ूब मिर्च-मसाला लगा कर पेश किया गया, जिसका नतीजा इस महाद्वीप के लिए अच्छा नहीं सिद्ध हुआ। अन्तिम पृष्ठ आवरण - ऐसी बात नहीं कि आज़ादी के बाद प्रजातान्त्रिक तकाज़ों को पूरा करते संवैधानिक इंस्टीट्यूशंस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का मौका मुसलमानों को नहीं मिला है। आजादी की लड़ाई में अपनी छाप छोड़नेवाली पीढ़ी के ख़त्म होने के बाद भी आबादी के अनुपात में न सही, लेकिन हिन्दुस्तान में अनेक मुस्लिम छोटे-बड़े पदाधिकारी, सांसद, एम.एल.ए. एम.एल.सी., मन्त्री, राज्यपाल, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति हुए हैं। मान-सम्मान और पद-पदवियों ने उन्हें भी उसी 15 प्रतिशत सुविधाभोगी ऊपरी वर्ग के। हिन्दुस्तानियों के घेरे में क़ैद कर रखा। उनका रहना, न रहना, आम मुसलमानों के लिए इश्तेहारी हैसियत के अलावा कोई मायने नहीं रखता रहा है। आज़ादी के बाद मुसलमान लगातार आज़माइशों से दो-चार रहे हैं, लेकिन मुस्लिम काज्ज् के लिए नाइंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ सिख काउज़ में एक्शन ब्लू स्टार के प्रश्न पर प्रोटेस्ट करते सरदार खुशवंत सिंह की तरह का एक भी मुस्लिम लीडर सामने नहीं आ सका। यह मुसलमानों की त्रासदी है। सम्मानित कुतियों पर बैठे मुसलमान प्रायः एहसास-कमतरी के शिकार हैं या अपनी खुदगुर्जियों के। उन्हें लोग 'साम्प्रदायिक' न कह दें, उनकी 'सेक्युलरिज्म' पर उँगली न उठे, इसी। फ़िक्र में मुसलमानों पर हो रही नाइंसाफ़ियों को वह देख रहे होते हैं, लेकिन उसके निदान के लिए पहल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। "
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डॉ. रज़ी अहमद (Dr. Razi Ahmad)

"डॉ. रज़ी अहमद - बिहार के वर्तमान बेगूसराय ज़िला के नूरपूर गाँव के एक मध्यवर्गीय शिक्षित परिवार में पले-बढ़े डॉ. रजी अहमद ने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. किया, फिर वहीं से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। एस.ए. करने के बाद 1960 से ही वह रचनात्मक क्षेत्र में सक्रिय होकर तत्कालीन बिहार के मुख्यमन्त्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की अध्यक्षता में बिहार में गाँधी संग्रहालय निर्माण के लिए 1958 में बनी समिति की योजनाओं से सम्बद्ध रहे। बारह वर्षों तक (1980-1992) तक यह राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय, नयी दिल्ली के मन्त्री भी रह चुके हैं। पाँच वर्षों तक 'एमनेस्टी इंटरनेशनल' इंडिया चैप्टर, नयी दिल्ली के सिक्रेटरी जेनरल भी रह चुके हैं। आपने 1978 में भारतीय प्रतिनिधि मंडल के एक सदस्य की हैसियत से यू.एन.ओ. में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया है। केन्द्रीय गाँधी स्मारक निधि, नयी दिल्ली, राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय समिति, नयी दिल्ली, राजेन्द्र भवन ट्रस्ट, नयी दिल्ली, बिहार विरासत विकास न्यास बिहार सरकार सहित अनेक शैक्षणिक, रचनात्मक और मानवाधिकार के लिए संघर्षशील संस्थाओं की कार्य समिति और ट्रस्ट से सम्बद्ध हैं। पटना विश्वविद्यालय सहित कई प्रतिष्ठित शैक्षणिक और सामाजिक संस्थानों ने इनके सराहनीय कार्यों के लिए इन्हें सम्मानित किया है। डॉ. अहमद की अनेक छोटी पुस्तिकाओं के अतिरिक्त कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें 'सदाकत आश्रम', 'साम्प्रदायिकता एक चुनौती', 'गाँधी और मुसलमान', 'जयप्रकाश नारायण, 'आज़ादी के पचास वर्ष क्या खोया क्या पाया', 'गाँधी अमांग दी पीजेंट्स' ने स्कॉलर्स को आकर्षित किया है। देश और विदेशों में मानवाधिकार, अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं तथा इस्लाम और विश्वबन्धुत्व जैसे विषयों पर आयोजित विचार-गोष्ठियों में आप सम्मिलित होते रहे हैं। "

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