भाषा-विमर्श नव्य भाषावैज्ञानिक सन्दर्भ - यह पुस्तक हिन्दी में भाषा-विषयक विवेचन की गतानुगतिक रूढ़ि को तोड़ती भाषा-विमर्श के नये 'स्कोप' को हमारे सामने प्रस्तुत करती है। यह हमें बताती है कि भाषा-विमर्श क्या है और उसके सही सन्दर्भ क्या हैं। हिन्दी में पहली बार यहाँ भाषा-विमर्श भाषा के सामान्य और विशिष्ट-दोनों गुणधर्मो की दृष्टि से प्राप्त होता है। इस पुस्तक में भाषा-विषयक विमर्श के स्वरूप प्ररूप, प्रकार्य और क्षेत्र को न केवल बड़ी गहराई और तलस्पर्शिता से एक बड़े दायरे में उपस्थापित किया गया है, बल्कि आज के नव्य भाषावैज्ञानिक साक्ष्य में इसे पहली बार व्याकरणिकता, शैक्षणिकता, अर्जनात्मकता, सार्वभौमिकता, सापेक्षता, सर्वेक्षणपरकता, यौन विभेदकता तथा प्ररूपात्मकता (Typologicality) से सन्दर्भित कर विवेचित किया गया है। लेखक मानता है कि 'भाषा-व्यवहार' और 'वचन-कर्म' यद्यपि भाषाव्यवहार-शास्त्र (Pragmatics) के अभिन्न अंग हैं, तथापि ये भाषा-विमर्श के अहम मुद्दे भी हैं। अतः यहाँ ये एक अपरिहार्य दायित्व के बतौर भाषा-विमर्श के अन्तर्गत विवेचित हुए हैं। इस पुस्तक में पहली बार गहन भाषाविज्ञान (Micro-Linguistics), बृहत् भाषाविज्ञान (Macro-Linguistics) और अधिभाषाविज्ञान (Mera-Linguistics)- तीनों के अन्तर्गत सक्रिय भाषा की अपेक्षित भूमिका (role) को अपने विमर्श का विषय बनाया गया है, जहाँ भाषा-विमर्श के साथ इनका न केवल सीधा सरोकार स्पष्ट होता है, बल्कि इनकी प्राथमिक नातेदारी भी सिद्ध हो जाती है। सबसे बड़ी बात है कि यह पुस्तक न केवल भाषाई ज्ञानानुशासन के सन्दर्भ में ज्ञान प्रदान करने वाली एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है, अपितु जीवन-जगत् में भी सामान्य भाषा-व्यवहार के सन्दर्भ में हमारी भाषा-चेतना और भाषा-विवेक को समृद्ध करने वाली सर्वोत्तम पुस्तक है। अन्ततः 'भाषा-विमर्श' के जिज्ञासु पाठकों के लिए हिन्दी में एकमात्र पठनीय, मननीय और संग्रहणीय पुस्तक!
"पाण्डेय शशिभूषण 'शीतांशु' -
जन्म : 18 मई, 1941।
शिक्षा : पीएच.डी. (हिन्दी), डी.लिट. (भाषाविज्ञान), स्नातकोत्तर डिप्लोमा (अनुवाद)।
व्यक्तित्व : गहन, व्यापक अध्ययन एवं मौलिक संदृष्टि से सम्पन्न भाषाविज्ञानी सैद्धान्तिक और सर्जनात्मक आलोचक भाषा और साहित्य के सिद्धान्त तथा विश्लेषण के लिए सिद्ध-प्रसिद्ध प्रखर तार्किक वक्ता एवं निर्भीक लेखक।
वृत्ति अध्यापन भागलपुर विश्वविद्यालय सेवा (1964) में हिन्दी के व्याख्याता पद से आरम्भ कर गुरु नानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर में रीडर (1977), प्रोफ़ेसर (1985), प्रोफ़ेसर- अध्यक्ष (1986-89) और अधिष्ठाता भाषा-संकाय (1992-94) तक पहुँचे। पुणे विश्वविद्यालय, पुणे में भी प्रोफ़ेसर रहे (जुलाई, 85) 2001 में अमृतसर में प्रोफ़ेसर पद से अवकाश ग्रहण म.गा. अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (2005-2007) और हैदराबाद (केन्द्रीय) विश्वविद्यालय (मार्च एवं नवम्बर, 2009) में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रहे। ICCR, नयी दिल्ली (भारत सरकार) द्वारा 1991 और 1995 में क्रमशः त्रिनिदाद और पेइचिंग के लिए 'विज़िटिंग प्रोफ़ेसर' चुने गये।
लेखन : मौलिक और सम्पादित कुल 37 पुस्तकें। इनमें एक कविता पुस्तक और एक साक्षात्कार पुस्तक भी सम्मिलित। शैली वैज्ञानिक आलोचना पर छह पुस्तकें, विसंरचनावादी (Deconstrctionist) आलोचना पर दो पुस्तकें, उत्तर-आधुनिक आलोचना पर एक पुस्तक तथा अन्य आलोचना-पद्धतियों पर भी दो पुस्तकें। इक्कीसवीं सदी के कुछ प्रमुख लेखन : विसंरचना बनाम डीकंस्ट्रक्शन देरिदा तथा अन्य चिन्तक, विसंरचनावादी आलोचना अर्थ की सर्जना, शैलीविज्ञान और भारतीय काव्यशास्त्र : तुलनात्मक सन्दर्भ, रामचरितमानस : संकेत-विसंरचनात्मक सन्दर्भ, पाश्चात्य प्रगामी आलोचना, सर्जनात्मक काव्यालोचन, पाश्चात्य व्याकरण विश्वकोश और अद्यतन भाषाविज्ञान प्रथम प्रामाणिक विमर्श साथ ही 300 से अधिक शोधालेख और आलेख प्रकाशित।
"