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Vani Prakashan

भट्टी में पौधा

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कमल चोपड़ा हिन्दी के उन विरल कथाकारों में हैं जो हाशिए पर आँधी पड़ी ज़िन्दगी के आर्तनाद को ही नहीं सुनते, उसकी दम तोड़ती साँसों और सपनों को जिलाने का प्रयास भी करते हैं। विडम्बनाएँ जिन्दगी के साथ अनायास घुन की तरह नहीं लगतीं। सत्ता और वर्चस्व की राजनीति अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु मनुष्य को मोहरा बनाकर जब-जब नचाने लगते हैं, सौहार्द और सामंजस्य के, शान्ति और सहिष्णुता के, प्रेम और विश्वास के, संवाद और संवेदना के कोमल तन्तु टूटने लगते हैं। आश्चर्य कि हाशिए का विस्तार बढ़ते-बढ़ते मुख्यधारा तक चला जाता है और मुख्यधारा सिकुड़ते-सिकुड़ते कुछेक लोगों की बपौती बन जाती है। फिर भी, दोनों के सम्बन्धों और स्थिति में कोई अन्तर नहीं आ पाता। लेखक के कथा-पात्र अपनी हाशियाग्रस्त स्थिति को स्वीकारते हैं, नियति को नहीं। उनके लिए नियति से टकराने का अर्थ किसी अमूर्त ईश्वरीय सत्ता के आगे रोना-गिड़गिड़ाना नहीं, व्यवस्था के दमन-चक्र को खुली चुनौती देना है। ऊर्जा, ओज, पराक्रम, संघर्ष, जिजीविषा और सपने इन कथा-पात्रों की पूँजी है। इसलिए धर्म, जाति, वर्ग, संस्कृति, आर्थिक स्तरीकरण जैसे भेदों-प्रभेदों की श्रृंखला फैलाकर विषमता का ताण्डव करने वाली समाज-व्यवस्था को पलट देना चाहते हैं। आत्मविश्वास और आत्मगौरव के बुनियादी मानवीय गुणों से सिरजे ये कथा-पात्र अपनी ही बेखबरी में खोए उपभोक्तावादी समय के भीतर खलबली मचा देने का दमखम रखते हैं। लेखक का कथा-सरोकारों का वितान खासा बड़ा है। इनका एक छोर 'सर्वभूतेषु' और 'आड़' कहानियों में धर्म के हिन्दू-मुस्लिम खाँचे के पार इंसानी वजूद की समानता को रेखांकित करता है, तो दूसरा छोर ‘गन्दे', 'मुद्दा', 'इज़्ज़त के साथ' कहानियों में 'बलात्कारी समाज' की हैवानियत को सामने लाता है। । -रोहिणी अग्रवाल

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