भीष्म साहनी : व्यक्ति और रचना
भीष्म साहनी के कथा-संसार में भारतीय जनता की आज़ादी के यथार्थवादी तर्क का निर्माण हुआ है। इनके कथा-संदर्भों में सामन्तवाद और पूँजीवाद के अन्तर्विरोध, वर्ण और वर्ग के अन्तविरोध, मध्यवर्ग के आन्तरिक अन्तर्विरोध तथा पुनरुत्थानवाद और आधुनिकतावाद के अन्तर्विरोध क्रमशः खुलते जाते हैं। आधुनिक भारत के नगरों और महानगरों में रहने वाला मध्यवर्ग उनकी कथा के केन्द्र में है। भारत की पूँजीवादी व्यवस्था में औद्योगिक दबावों का जनता के जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ा है? भारतीय पूँजी की आकांक्षाओं में पलने वाली उपभोक्ता संस्कृति तथा उसके विरुद्ध भारतीय जनता के श्रम से उत्पन्न होने वाली लोकतन्त्रीय जनवाद की संस्कृति का संघर्ष भीष्म की रचनाओं में अन्तःस्रोत की तरह प्रवहमान है। यहीं पर भीष्म की रचना-प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है। वर्णवादी, जातीय और साम्प्रदायिक दृष्टि के मूल कहाँ हैं? समन्वयवादी संस्कृति के इस महादेश में धर्म के नाम पर सामूहिक हत्याओं का मूल कारण कहाँ है? कृषि और औद्योगिक सम्बन्धों के बदलने में जनता के श्रम को यदि धर्मनिरपेक्ष आधार नहीं मिला, तो श्रमिक का नज़रिया वैज्ञानिक न होकर जातीय और धार्मिक परम्पराओं वाला ही बना रहेगा। भीष्मजी ने अपनी कथा में साम्प्रदायिकता के भौतिका परिवेश को विश्लेषित किया है। वे यह बतलाने में चूक नहीं करते कि पूँजी का संस्कार साम्प्रदायिक, गैर-प्रजातान्त्रिक और प्रतिबद्धता विरोधी होता है। जिसकी परिणति अराजकता, अपराध और अन्त में फासिस्ट व्यवहार में होती है। अतः धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ है अपने भौतिक परिवेश के प्रति बौद्धिक होना तथा सामाजिक-आर्थिक सहकार में कर्म की चेतना को ग्रहण करना।
Publication | Vani Prakashan |
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