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Vani Prakashan
बुद्ध और फराओ
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Buddh Aur Pharao
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"“चीनांशुकामिव केतोः प्रतिवातम् नियमानस्य”
वैसे तो कालिदास ने यह बात दुष्यन्त के बहाने प्रेमियों के मन के लिए कही है कि जहाँ प्रिय की स्मृतियाँ हर ओर बिखरी हों, वह रमणीय स्थान छोड़कर जाते हुए मनुष्य का मन रथ की रेशमी पताका-सा (विपरीत बहती हवा के आघात से) पीछे की ओर ही मुँह किये फड़फड़ाता रहता है, पर नौकरी की तलाश में गाँव-क़स्बा छोड़कर शहर आ बसने को मजबूर नवयुवकों या किसी कॉन्फ्लिक्ट जोन से खदेड़ दिये गये मासूम विस्थापितों के मन पर भी यही बात लागू होती है। तभी तो इस सदी की बहुतेरी बड़ी कविताएँ उन इयत्ताओं, प्रसंगों और चरित्रों का मार्मिक आख्यान हैं जो कहीं पीछे छूट गये। इस संग्रह के परिप्रेक्ष्य में कहें तो “लूनी नदी” जो असमय ही सूख गयी; बहुत देर रात धान काटकर आते दादा जिनका हँसिया “चाँद की तरह दीखता” और जिनका पेट इतना चिपका होता कि"" दोनों तरफ़ की पसलियाँ चाँद की तरह दीखतीं”; भूख से मरे वे सब पुरखे “जिनकी आँख का पानी नहीं मरा""; पुरखों के घर जहाँ “उनके संघर्ष, आँसू, दर्द, खुशी—सबके निशान/दुनिया की सबसे सुन्दर अदृश्य लिपि में/उन दीवारों में शिलालेख की तरह टंकित होते हैं""; दूर ब्याह दी गयी पढ़ाकू दीदी जो किताबें और अपनी दूसरी चीजें छूने पर घण्टों बहस किया करती थी, फ़ोन पर कहती है “भैया, अब सब तेरे हैं""—कमरा, साइकिल, माँ-बाबूजी और किताबें। माटी की मूरतों में प्राण भरने वाले माट साहब, जिनकी जेब में दो रंगों की कूचियाँ होतीं “आँखों में भरते एक से आसमान/दूजे से सिखाते धरती पर चलना""; गाँव-घर के मुस्लिम चाची-चाचा जो अब डरे-से रहते हैं—पैरों का मोच बैठाने में निष्णात उम्मत चाची, ज़मीन से पेट दबाकर सोने वाले दर्ज़ी चाचा नाज़िम अली, हुलिये से बच्चों को चेग्वेरा होने से बचा लेने वाले हजाम चाचा हशमत; एक पैर पर तपस्या करने वाले पेड़ जो असल भगीरथ थे—धरती पर पानी उतारने वाले; एक जोड़ी जूते में से सिर्फ़ एक जूते की तरह अकेले दिखते विधुर; “माँ और सुरुज देव”, और सबसे ज़्यादा तो बाबूजी जिनका कॉस्मिक विस्तार उनको अनन्त वैभव देता है और कविता को एक अलग ऊँचाई। पिता पर इतनी अच्छी कविता कम ही लिखी गयी हैं। उनका नख-शिख वर्णन नख-शिख वर्णन की रूमानी परम्परा को एक नया मोड़ देता है : उनकी मूँछ प्रेमचन्द की तरह लगती है जो उन्होंने लमही के रघु नाई से होरी की तरह कटवाई थी, जिनके सर के बाल “खेतों में उगी फ़सल की तरह"" थे जिसे उम्र की घर लौटती बकरियाँ “सारी सतर्कता के बावजूद/किनारे-किनारे चर गयी थीं, जिनके कान ब्रह्माण्ड की किसी जटिलतम गुत्थी की तरह थे, उनमें जाने किसकी रोती हुई-सी आवाज़ आती थी “जो सभ्यताओं के विकास से लेकर अभी तक लगातार चलती आ रही थी”, जिनके फेफड़े दिन-भर लोहार चाचा की धौंकनी की तरह चलते, जो कभी अपनी ससुराल जाते तो “अपने चेहरे पर अपनी उगायी हुई सरसों का तेल मलते""—एक बार अम्मा ने शिउली के कुछ फूल देखकर अनुमान लगाया था कि कभी न रोने वाले बाबूजी बस अपनी माँ की मृत्यु पर छुपकर रोये थे—उन्होंने अपनी माँ से ही खेतों के अंकुर आँखों से सहलाने वाली आँखें पायी थीं।
दीपक ने भी विरासत में ऐसी ही कोमल आँखें पायी हैं। समय आ गया है जब पुरुष भी माँ की आँखों से दुनिया देखना सीख जायें। तभी दुनिया से हिंसा और क्रूरता मिटेगी। फराओं का सर्वहसोथ भाव तिरोहित होगा, बुद्ध की परम्परा आगे बढ़ेगी।
ये कविताएँ नास्टैल्जिया के रूमान की कविताएँ नहीं हैं, अश्वेत साहित्य में व्याप्त 'रिमेमोरी' की कविताएँ हैं जहाँ हर स्मृति की ज़मीन एकांगी विकास के क्रूर क़ब्ज़े से छुड़ायी जाती है—एक लम्बा मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ा जाता है भाषायी औज़ारों से।
—अनामिका
★★★
इन कविताओं के केन्द्र में वह समय है, जो स्वयं में अनुपस्थित होकर, अपने ही बाहर का ऐसा वृत्त रचता है, जिसके दायरे में वह सब कुछ सिमट आता है, जिसे ठीक आज के समय का कोई भी मनुष्य अपनी सामान्य प्रज्ञा, बोध, संवेदना, अपने दैनिक जीवन के अनुभवों और अब तक अर्जित ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से, समझता हैI
लेकिन इन कविताओं में स्थगित समय के भीतर और बाहर का वह वृत्त है, जहाँ मिथक टूटते हैं, इतिहास सभ्यता की गुफाओं में दाखिल होकर नया अर्थ हासिल करता है और युवा कवि दीपक जायसवाल की इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठक अपनी सामान्य चेतना की किसी गहरी नींद से अचानक जाग जाता है। इस संग्रह में और भी बहुत कुछ है, जिसमें संवेदनशील और सम्भावनाशील युवा कवि दीपक जायसवाल की अपने सम्बन्धों के प्रति कोमल-कृतज्ञ, भावनात्मक संवेदनाओं का प्रमाण मिलता है। इसमें नानी की जादुई सन्दूक है, बाबूजी हैं, जिनकी प्रेमचन्द जैसी मूँछ लमही के रघु नाई ने बनायी थी, भाग्य की तरह खुरदुरा और सख़्त उनका चेहरा, एटलस साइकिल पर छपे ग्रीक देवता की तरह पूरी पृथ्वी को कन्धे पर टिकाये बाबूजी बुद्ध के साथ महायान में चप्पू चलाते थे...‘जाने वह क्या चीज़ थी, जो नानी को उनकी अम्मा ने अपनी सन्दूक से निकालकर दिया, फिर नानी ने अम्मा को दिया, अब मेरी अम्मा मेरी बहनों को देती हैं...!' इस संग्रह में केदार जी के नूर मियां हैं, हशमत हैं, नाज़िम अली चाचा और उम्मत चाची के साथ एक भरी-पूरी गलियाँ और घर-परिवार है।
आशा है दीपक की ये कविताएँ देश और दुनिया के तमाम अंतरे-अँधेरे कोनों में उजालों की अपनी किरणें बिखेरेंगी और समय के भीतर-बाहर को निर्भय ज्ञानात्मक संवेदना के साथ पाठकों के सामने उजागर करेंगी।
शुभकामनाओं के साथ
—उदय प्रकाश
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