बुई
सांसारिक संग्राम से पहले एक स्त्री को घर की चारदीवारी में अस्तित्व और अस्मिता की बहुत-सी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ती हैं। बुई भारतीय घरों में रोज़ घटने वाली एक ऐसी ही कहानी है, जहाँ परिवार की गरिमा का उत्तरदायित्व बेटियों के कन्धों पर रहता है जबकि परिवार की सम्पत्ति और समस्त अधिकार बेटों के नाम रहते हैं। यह कथा उन निःस्वार्थ बेटियों और बहनों के जीवन की गहराई में उतरती है, जो अपने संघर्षों और बलिदानों के बाद भी प्रेम और सम्मान से वंचित रह जाती हैं।
स्वाति की यह यात्रा प्रेरणादायक है, जहाँ वो परम्परा और प्रगति के बीच के नाज़ुक सन्तुलन को स्थिर बनाये रखने की कोशिश करती है। क्या उसे उसके हिस्से का प्रेम और अधिकार मिल सकेगा? या परिवार और समाज की अपेक्षाएँ उसे हमेशा की तरह हाशिये पर रखेंगी? आइए जानें कि कैसे अपना सब कुछ परिवार के लिए समर्पित करने वाली स्त्री, अपने अतीत की कड़वाहटों को पार करते हुए एक नया क्षितिज खोजती है और हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि स्त्री जननी और शक्ति क्यों कही जाती है।
★★★
विनीता अस्थाना का बुई उपन्यास स्त्री-उत्तराधिकार के मुद्दे पर पूरी संजीदगी से पुनर्रचित एक ऐसा गल्प है जो भारतीय समाज में व्याप्त उन तथाकथित ‘नैतिक मूल्यों' का पर्दाफ़ाश करता है, जो स्त्री के मन-मस्तिष्क को अनजाने ही अनुकूलन का शिकार बनाते हैं।
उपन्यासकार ने भारतीय परिवारों की इस कड़वी सच्चाई को चित्रित करने के लिए जिस कथा-संरचना को मनोयोग से बुना है, वह लेखक की शिल्प सजगता का परिचायक है। इस विषय पर हिन्दी में अनेक कृतियाँ रची गयी हैं पर विनीता अस्थाना के इस उपन्यास की अनोखी अन्तर्वस्तु इसे उन कृतियों से भिन्न एवं विशिष्ट बनाती है।
लेखिका ने इस क्रम में प्रेमी-प्रेमिका वाले स्टेरिअटाइप से निकलकर स्त्री-पुरुष के अनेकस्तरीय सम्बन्धों की जटिलता को जिस क़दर उजागर किया है, उसमें पाठक को शुरू से लेकर कृति के अन्त तक बाँधे रखने की सलाहियत है।
—प्रो. गरिमा श्रीवास्तव
Publication | Vani Prakashan |
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