इस संकलन में ऐसे कई गीत हैं, जो लोकभाषा में रचे गये हैं। यह इस बात का संकेत है कि गीतकार ‘बेकल’ उत्साही इस विश्वास को स्वीकार करते हैं कि गीत सहज मन की सरल अभिव्यक्ति है और जिसकी अभिव्यक्ति लोकभाषा को माध्यम बनाकर और भी निष्कपटता के साथ, और गहरे प्रभाव के साथ की जा सकती है। क्योंकि गीत तो पहले पहल लोकभाषाओं की अँगलियाँ पकड़कर ही आँगन से द्वार तक आया था। आज गीतों की वह भाषा बदल गयी है, लेकिन गीतों में लोकभाषाओं की छोंक को नहीं रोका जा सकता, जिसके बिना गीत अपने स्वरूप को भी हासिल करने से वंचित ही रहता है। ‘बेकल’ उत्साही जी के गीत जो सीधे-सीधे लोकभाषाओं में सृजित हैं, इन्हें छोड़ भी दें तो इनके उन गीतों में भी, जो उर्दू भाषा के हैं वहाँ भी उन्होंने लोक शब्दों की सुगन्ध को आने से नहीं रोका है। जिस प्रकार संस्कृत भाषा का अनुष्टुप, अरबी-फ़ारसी का ग़ज़ल छन्द अपनी आकारगत लघुता में जीवनानुभूति की विशाल काय नात को रस का रेशमी ताना-बाना देता रहा, उसी प्रकार हिन्दी का दोहा छन्द काव्य-क्षेत्र की व्यापक संवेदना के छवि-चित्र खींचता रहा है। ‘बेकल’ साहब के दोहे भक्ति भाव के सन्दर्भ में तुलसी और रहीम की याद दिला देते हैं जो शृंगार का सवाल उठने पर बिहारी के साथ दिखाई पड़ते हैं।
पद्मश्री ‘बेकल' उत्साही मूल नाम : लोदी मुहम्मद शफ़ी ख़ाँ। जन्मः 19 जुलाई, 1928, रमवापुर गौर, उतरौला, गोण्डा (उ.प्र.)। पिता : (स्वर्गीय) मुहम्मद जाफ़र ख़ाँ लोधी प्रकाशित पुस्तकें : विजय बिगुल, बेकल रसिया, नग़मा-ओ-तरन्नुम, निशात-ए-ज़िन्दगी, सुरूर-एजाविदाँ, नूर-ए- यज़दाँ (नात), लहके बगिया महके गीत, पुरवाईयाँ, कोमल मुखड़े बेकल गीत, अपनी धरती चाँद का दर्पण, ग़ज़ल साँवरी, रंग हज़ारों ख़ुशबू एक, मिट्टी रेत चट्टान, मोती उगे धान के खेत, लफ़्ज़ों की घटाएँ, मौसमों की घटाएँ, धरती सदा सुहागन, 'बेकल' उत्साही कुल्लियात, चल गोरी दोहापुरम् पुरस्कारः 1976 में : तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद द्वारा पद्मश्री से सम्मानित। देश-विदेश के सैकड़ों सम्मान पुरस्कार प्राप्त। राज्यसभा (1986-1992) के लिए मनोनीत। अफ़्रीका, अमेरिका, एशिया, यूरोप के अनेक देशों में काव्य पाठ। अनेक शोधार्थियों का शोध कार्य सम्पन्न।