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Vani Prakashan

चेतना का संस्कार

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"हिन्दी निबन्ध : स्वरूप और सीमा आत्म-प्रकाशन की प्रवृत्ति मनुष्य की एक अत्यन्त प्रबल प्रवृत्ति है। प्रायः सम्पूर्ण साहित्य के मूल में मनुष्य की यह प्रवृत्ति काम करती है। यही प्रवृत्ति निबन्ध के मूल में भी सक्रिय होती है। निबन्ध में जिस तत्त्व को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है वह है निबन्धकार का व्यक्तित्व । यदि व्यक्तित्व को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया जाय तो एक अर्थ में सभी कलाओं में कलाकार का व्यक्तित्व छिपा होता है।' इस व्यक्तित्व को निबन्ध में अनिवार्य तत्त्व के रूप में ग्रहण किया गया है। निबन्धों का जनक मान्तेन कहता है कि वह अपने को ही निबन्धों में चित्रित करता है। उसकी दृष्टि में निबन्ध आत्मा को दूसरों तक पहुँचाने के प्रयास हैं। - भूमिका से "
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9789350725863
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