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चिड़िया और मुस्कुराहट

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आनंद हर्षुल की चर्चा अक्सर उनकी कहानियों के अनूठे शिल्प और संवेदनशील कथा-भाषा को लेकर की जाती है। कहानी की प्रविधि के प्रति सजगता और भाषा के सौष्ठवपूर्ण सौन्दर्य-लोक में कथ्य को ढालने की कलात्मक दक्षता, उनकी कहानियों में अनिवार्य गुणधर्म की तरह मौजूद हैं। यथार्थ के साथ रोमांस के जिस सर्जनात्मक दुस्साहस के लिए आनंद हर्षुल जाने जाते हैं, वह उनके गद्य के अनूठेपन और विशिष्ट कथन-भंगिमा में प्रकट-प्रत्यक्ष है। यह ऐसा गद्य है, जो इन दिनों प्रचलित कथात्मक गद्य की स्थूल रूढ़ियों–विवरणात्मकता, वृत्तान्त के प्रायः एकरैखिक विन्यास और यथार्थ की निपट समाजशास्त्रीय भंगिमा के बरअक्स किंचित् स्वैरमूलक, संवेदनात्मक और स्मृतिबहुल रूप ग्रहण कर लेता है। इस रूप में यह इन दिनों लिखी जा रही कहानी के जाने-पहचाने गद्य का प्रतिलोम जान पड़ता है। ऐसा नहीं है कि आनंद की कहानियों में घटनाएँ या विवरण नहीं हैं, लेकिन ये कहानियाँ सिर्फ़ घटनात्मक वास्तविकता और उसके स्थूल विवरणों पर निर्भर होतीं तो कोरे वृत्तान्त में सिमटकर रह जातीं। आनंद संवेदना की गहराइयों तक जाते हैं और सूक्ष्म विवरणों में उसे सिरजते हैं। उनकी कहानियाँ निपट क़िस्सागोई के अन्दाज़ में कथ्य के ब्यौरेवार विस्तार में जाने के बजाय संवेदना की बारीकी को पकड़ती हैं। इसलिए मामूली-सी घटना या कोई विडम्बनामूलक जीवन-स्थिति अपनी प्रकट वास्तविकता से ऊपर उठकर धीरे-धीरे आख्यान के अद्भुत इन्द्रजाल में प्रवेश करती है और कथाकार उसकी यथार्थता को किंचित् स्वैरभाव से तल्लीनतापूर्वक रचने लगता है। यह कहानी की वह कीमियागिरी है, जो 'साधारण' को ‘विलक्षण’ में बदल देती है।

आनंद कथावस्तु के यथार्थवादी प्रत्यक्षीकरण में नहीं, बल्कि यथार्थ के स्वैरमूलक कायान्तरण में कहानी सम्भव करते हैं। इसलिए ज़रूरत पड़ने पर आनंद कहानी के आख्यान को फैंटेसी के भीतर संघटित करने का जोखिम भी उठाते हैं, जहाँ यथार्थ की संरचना पूरी तरह से बदल जाती है। उनके यहाँ यथार्थ नहीं, यथार्थ की बुनावट में कहानी आकार लेती है। वह यथार्थ से ज़्यादा यथार्थ के विन्यास पर बल देते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि यहाँ कहानी की ‘बनावट' ही उसकी पहचान बन जाती है और वही दरअसल पाठक का ध्यान खींचती है।

ऐसा गद्य लिखकर आनंद हर्षुल ने कहानी की नियति-रेखा को टकसाली यथार्थवाद या पिछली सदी के अस्सी के बाद के दौर की कहानी के प्रचलित रीतिवाद के घेरे से बाहर खींचकर उस जगह ला छोड़ा, जहाँ वह पूर्व-निश्चित गन्तव्य तक पहुँचने की हड़बड़ी से बचकर, उसे खोजने की प्रक्रिया में अपना होना सम्भव करती है। इसलिए इन कहानियों में कथानक में तीव्र गतिशीलता नहीं, मन्थर प्रवाह का ठहराव है। इनमें घटनात्मक वास्तविकता का पसारा नहीं है। इसके उलट पात्रों की जीवन-स्थिति और उनकी मनःस्थिति का सूक्ष्म अन्तर्वीक्षण है। ये घटनाओं की नहीं, स्थितियों की कहानियाँ हैं। ये विचार या मतवाद के क़रीब नहीं जातीं, बल्कि उसके किसी भी संस्करण से दूरी बनाकर या उसके चालू साँचे से बाहर आकर, स्वयं अपनी भाषा में कथात्मक अन्तर्दृष्टि अर्जित करती हैं। यथार्थ की घटनात्मक प्रामाणिकता के बजाय ये संवेदनात्मक अन्तर्निष्ठा को तरजीह देती हैं।
- जय प्रकाश

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