दारुलशफ़ा - दारुलशफ़ा एक बस्ती भी हो सकती है और संस्था भी, और काल्पनिक होते हुए भी आज की ज़िन्दगी में उस जगह है जहाँ आपाधापी, हिंसा, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता और चापलूसी का हमारा जाना-पहचाना यथार्थ, अपने विवरण की प्रखरता के कारण, बिल्कुल अजनबी ढंग से उभरता है और हमारी सामाजिक चेतना पर हमला बोलता है। गहरी मानवीय संवेदनाओं और ठेठ क़िस्सागोई के दो छोरों में बँधे हिन्दी उपन्यास के संसार में ऐसी बहुत कम मध्यवर्ती कृतियाँ है जो सामान्य पाठक को सुपरिचित ज़िन्दगी के बीच से ही ऐसे अनुभवों से गूँथती हों जो उसकी उदासीनता को तोड़ सकें। मुझे विश्वास है कि चिलगोजों, चमचों, चकबंदों, ख़ुराकियों से भरा-पूरा यह उपन्यास इन्हीं कृतियों में एक होगा। दारुलशफ़ा आज की ज़िन्दगी का असली दस्तावेज़ है। -श्रीलाल शुक्ल क्या बात उठायी है, क्या माहौल बनाया है...कितने पात्र लिए है... क्या क़िस्सागोई है, बहुत ख़ुश है मन, इस वक़्त आपकी क़लम पर, पर बेहद उदास और दुखी है उस गन्दी घिनौनी असलियत को लेकर जो इन राजनीतिक मुखाटों के पीछे दर्ज है। -धर्मवीर भारती इस रचना में बहुत कलात्मकता से प्रस्तुत आज की राजनीति का यह दर्दनाक पहलू बहुत छूता है, एक सोये हुए अंगारे की तरह छूता है, ऊपर राख राख है, पर बदन में लगते ही एकदम जी तड़प उठता है। -विद्यानिवास मिश्र वहीं इतिहास नख-शिख तक दारुलशफ़ा में अंकित हुआ है... उसने दारुलशफ़ा को एक प्रासंगिक और प्रामाणिक दस्तावेज़ बना दिया है। -विष्णु प्रभाकर उपन्यास बेहद रोचक और पकड़ने वाला लिखा है। कहानी कहने और चुनने की कला को आपने निश्चय ही सिद्ध कर लिया है। -राजेन्द्र यादव
शिक्षा : बी.ए. (कॉमर्स), लखनऊ विश्वविद्यालय; सर्टिफ़िकेट कोर्स, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल वेलफ़ेयर एंड बिजिनेस मैनेजमेंट, कोलकाता।
राजकृष्ण मिश्र की पहली कहानी ‘ककन के लिए’ 1957 में छपी थी। उसके बाद ‘क्या होगा’, ‘वह आएगी’, ‘धड़कनों का राग’, ‘मन के किनारे’, ‘धन्धा’ आदि कहानियाँ समय-समय पर प्रकाशित होती रहीं। ‘दारुलशफ़ा’,‘मंत्रिमंडल’, ‘कामना का क्षितिज’ आदि उनके बहुचर्चित उपन्यास और रेखाचित्र हैं। उन्होंने ‘चालान’,‘वापसी’, ‘वजूद’ और ‘हेलो’ आदि कई महत्त्वपूर्ण नाटक भी लिखे। ‘चालान’ और ‘वापसी’ नाटक दूरदर्शन और आकाशवाणी से प्रसारित किए जा चुके हैं।
राजकृष्ण जी दूरदर्शन के फ़्रीलांस निर्माता-निर्देशक रहे और दूरदर्शन के लिए फ़िल्में बनाते रहे। वे ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’, ‘बन्द मुट्ठी’, ‘खुला आसमान’, ‘पीढ़ी से पीढ़ी तक’, ‘टुकड़ों में बँटी ज़िन्दगी’, ‘भूले भटके’, ‘पुन:’, ‘दस साल बाद’, ‘रहस्य’, ‘अनुभूति’, ‘संकट मोचक’, ‘रासलीला’ आदि दूरदर्शन फ़िल्मों के पटकथा-लेखक, निर्माता और निर्देशक रहे। उन्होंने उत्तर प्रदेश चलचित्र निगम लिमिटेड में सलाहकार के पद पर कार्य करते हुए अपना बहुमूल्य योगदान दिया।