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Vani Prakashan

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दस्तक - 
मामूली लोगों की ग़ैर-मामूली सहभागिता और पारस्परिकता के ताने-बाने को परत-दर-परत उजागर करती एक संवेदनशील मानवीय जीवन-गाथा।
हसीना ख़ाला को जानने के लिए आपको उनकी दुनिया में, उनकी बस्ती में रहना होगा। वरना तो वो नामहसूस अन्दाज़ में आपकी बगल से गुज़र जायेंगी और आपको पता भी नहीं चलेगा। इस किताब के सफों पर हसीना ख़ाला की इसी शख़्सियत के वो पहलू सामने आते हैं जो दुनिया भर की किसी भी मेहनतक़श आबादी को उसकी ख़ास शोखी देते हैं - आपसदारी और वक़्त ज़रूरत काम आना। यहाँ ज़िन्दगी के कारोबार में हसीना ख़ाला के साथ-साथ चलते हुए इस घनी बस्ती के भीतर इन्सानी वजूद के एक से एक रंग परत-दर-परत सामने आते हैं। हसीना ख़ाला, जो अपनी ज़िन्दगी की तरह कभी ठहरती नहीं। “हसीना जी एक चलती-फिरती, हर पल 'मोबाइल', कोई दरवेश जैसी हैं। एक हॉस्पिटल ऑन फुट। एक काउंसिलर। एक कोई दुआख़ाना-दवाख़ाना। मनुष्यता की एक ऐसी 'डिस्पेंसरी' जहाँ हर विपदा आफ़त का मारा परिवार आकर अपनी ज़िन्दगी हासिल करता है। मुश्किल ज़िन्दगी जीने के सहज नुस्खे।" ऐसी ही हैं हसीना ख़ाला, आम फिर भी ख़ास। जरा सोचें, हम रोज़ ऐसी कितनी शख़्सियतों के बगल से गुज़र जाते होंगे....।

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9789350723012
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Vani Prakashan
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यशोदा सिंह (Yashoda Singh)

"यशोदा सिंह - यशोदा सिंह की पैदाइश दिल्ली की है और वो यहीं रहती हैं। 2001 में वह युवा लेखकों की एक टोली से जुड़ीं। यहाँ उनके नये साथियों ने उनके लिखे पन्ने पढ़े और उनकी पुख़्तगी को सराहा तो यशोदा को इस बात का हौसला मिला कि वो भी लिख सकती हैं। उनके लिखे कुछ टुकड़े इससे पहले 'बहुरूपिया शहर' और 'फर्स्ट सिटी' पत्रिका के अलग-अलग अंकों में आ चुके हैं। उन्होंने 2004 में हेम्बुर्ग, जर्मनी में हुए इंटरनेशनल यंग परफॉर्मर्स फेस्टिवल प्लेमास 2004 में हिस्सा लिया। 2011 में उन्होंने लाहौर में बाल साहित्य सम्मेलन में 'अंकुर' की ओर से बाल लेखकों के साथ क़िस्सागोई की एक प्रस्तुति दी। यह उनकी पहली किताब है। "

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