आज उदासीन धरती पर मैं अपनी कविता के अन्तरंग अनुभवों से टिकी हुई हूँ। अपनी कविता में मैं आत्मीय अनुभूतियों को अकृत्रिम रूप में ही अभिव्यक्त करना चाहती हूँ । समकालीन समय सर्जनशीलता पर अधिक जोर देता-सा नहीं लगता। अपने प्रयोजन के मानक में वह उसे तोलना चाहता है । आज चेतना की सूक्ष्मता अपनी सुकुमारिता खोती जा रही है यह अहसास भी होने लगा है, अतः कवि अनजाने में पाठकों के लिए एक वस्तु सा बनता जा रहा है; फिर भी वह किसी को आहत करना नहीं चाहता। किन्तु, उसमें सत्य, शिव और सुन्दर के प्रति आस्था बनी रहती है । और मुझे लगता है मानो मेरी कविता मेरे लिए काल से काल को जोड़ने का सम्पर्क सूत्र है, अटूट । वह मंगल सूत्र के समान सुरक्षित, संरक्षित है उसी से मेरा काव्य-जीवन अवक्षयित समय के द्वारा कतई कलंकित नहीं हुआ है। सौन्दर्यबोध, अनुराग मेरी कविता की सुकुमारिता है । मेरी कविताओं के इस संकलन, 'देवकी होना, यशोदा भी...' में मेरे लिए मानो उपस्थित वर्तमान में महत्त्वपूर्ण है शैशव । विशाल जीवन में सुन्दर स्नेहमय और आत्मीयता के उपादानों में शैशव ही भरा पूरा कर देता है। लगता है सुन्दर बचपन था जिसका, वह ही है सब से अधिक सौभाग्यशाली ।
डॉ. मनोरमा विश्वाल महापात्र
काव्य और कला की सारस्वत तीर्थ भूमि शान्तिनिकेतन की छात्रा थीं डॉक्टर विश्वाल महापात्र । काव्य- जिज्ञासा, जो उन्हें आतुर करती रही है; आपके काव्य संग्रहों में 'थरे खालि डाकिदेले’, ‘स्वातीलग्न', 'एकला नईर गीत', 'जन्हरातिर मुँह', 'शब्दर प्रतिमा', ' फाल्गुनि तिथिर झिअ', 'विश्वासर पद्मबन' निरवंचित कविताएँ आदि में उस अन्वेषा की तन्मयता देखी जा सकती है। उनकी एक स्वतन्त्र दिशा है अभिव्यक्ति की जिससे ओड़िआ सर्जनात्मक कविता के क्षेत्र में श्रीमती मनोरमा विश्वाल महापात्र एक सार्थक तथा आदरणीय नाम है । श्रीमती महापात्र के संग्रह हिन्दी, बांग्ला, तमिल तथा अंग्रेजी में अनूदित हुए हैं । कविता के लिए ओड़िशा साहित्य अकादेमी तथा अन्य अनेक सम्मानों से अलंकृत हुई हैं। मनोरमा विश्वाल महापात्र की कविताएँ ग्रामीण परिवेश और लोक संस्कृति के प्रति गहरा प्रेम दर्शाती हैं। 27 नवम्बर, 1948, प्रथाष्टमी के दिन बालेश्वर के सागर तटवर्ती 'जगाई' में जन्मी कवि मनोरमा अब भी तपस्यालीन हैं ।
सम्पर्कः 'प्रीतमपुरी', 125, आचार्य विहार, भुवनेश्वर - 751013, ओड़िशा । email: manobm48@yahoo.co.in
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