जयंती रंगनाथन हिन्दी की उन गिनी-चुनी लेखिकाओं में से हैं जिन्होंने फॉर्म, फॉरमेट, कॉन्टेंट और प्लेसमेंट में ख़ूब प्रयोग किया है। किसी ढाँचे में ढल कर नहीं, बल्कि नये ढांचे बना कर। 'धर्मयुग' में 10 सालों तक और धर्मवीर भारती के साथ 4 सालों तक काम किया। तब से आज तक हिंदी पत्रकारिता की शिखर महिला के रूप में हमारे बीच हैं। एफ.ओ. ज़िंदगी जयंती का नया उपन्यास है, जो मिलीनियल्स को केंद्र में रखता है। यहाँ खींचातानी उतनी ही है जितनी जीवन और लाइफ के बीच है, माता-पिता और मौम-डैड के बीच है, जीवनसाथी और पार्टनर के बीच है या सहवास और सेक्सुअल इंडिपेंडस के बीच है। यानि बड़ी कन्फ़्यूज़न! इन सब के बीच राजनीति है, शहर है, रिश्ते हैं...आइए इस रोलर-कोस्टर राइड पर साथ चलते हैं। मज़ा आएगा।
तो? ...अपना परिचय देने से पहले कुछ तो बताना पड़ेगा ना अपने बारे में। अप्पा की ज़िद थी कि तीसरी बेटी का नाम जयंती रखा जाये। अम्मा क्या ज़िद करतीं? वो तो ख़ुद ही ज़िद्दी थीं। हर समय अपना पेट जुमला सुना-सुना कर मुझे वो बना दिया, जो मैं आज बनने की राह पर हूँ। तान पादि, दैवम पादि...तमिल के इस जुमले का मतलब है आधे आप, आधे देव। बहुत कुछ नहीं मिला था विरासत में, अम्मा ने कहा था जो नहीं मिला उसकी शिकायत मत करो। अपना बाकी आधा ख़ुद पूरा करो। अगर ऐसा ना करती, तो एक मध्यमवर्ग तमिल परिवार में एक बैंकर बनी, सिर पर फूलों का गजरा लगाए, बालों में तेल चुपड़ कोई दूसरी ही ज़िन्दगी जी रही होती। अम्मा की बात सुनी भी, गुनी भी, तो बचपन से उस भाषा में लिखना शुरू किया जिससे मुझे अजीम मोहब्बत है। पढ़ाई की थी बैंकर बनने के लिए। मुम्बई में एम. कॉम. के बाद जब टाइम्स ऑफ इंडिया की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘धर्मयुग’ में काम करने का मौका मिला तो लगा यही मेरा शौक भी है और पेशा भी। दस साल वहाँ काम करने के बाद कुछ वर्षों तक ‘सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन’ से जुड़ी। दिल्ली आयी ‘वनिता’ पत्रिका शुरू करने। ‘अमर उजाला’ से होते हुए पिछले छह सालों से ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में हूँ। फीचर के अलावा ‘नन्दन’ की सम्पादक भी हूँ। चार सीरियल, तीन उपन्यास और एक कहानी-संग्रह के बाद मौका मिला है अपने प्रिय महानगर मुम्बई को तहेदिल से शुक्रिया अदा करने का। लव यू बॉम्बे...जान तो बस तुम ही हो सकती हो!