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ग़ज़ल दुष्यंत के बाद 1

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ग़ज़ल... – दुष्यंत के बाद  -1 - 

पाठक ही निर्णायक है
कमलेश्वर
दुष्यंत के बाद हिन्दी ग़ज़ल ने एक लम्बा सफ़र तय किया है और अपनी सामर्थ्य और शक्ति के साथ अपने उस मुक़ाम पर पहुँच गयी है जहाँ भाषिक भेद अर्थहीन हो जाता है। ग़ज़ल ग़ज़ल है और नागरी लिपि में लिखी गयी ग़ज़ल का पाठक संसार आज काफ़ी विस्तृत है क्योंकि मनुष्य की चेष्टाएँ अपनी समग्र जटिलता के साथ इन ग़ज़लों में अभिव्यक्त हो रही है। गाँव, क़स्बे और नगरों में बढ़ते ग़ज़लकारों और श्रोताओं पाठकों की बढ़ती संख्या इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है। दुष्यंत कुमार से पहले ग़ज़ल लगभग डेढ़ हज़ार वर्षों से फ़ारसी में, फिर उर्दू में भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित रही है लेकिन उर्दू ग़ज़ल जहाँ मध्यकाल से अभी तक सिर्फ़ अदब-अदीब और बुद्धिजीवियों तक सीमित थी, दुष्यंत ने इसे आम आदमी की रोज़मर्रा की पीड़ा तक पहुँचाया। शब्दों का व्यवहार सम्मत सृजन संसार दिया जो सबकी समझ में आ जाता है। क्योंकि वह उर्दू ग़ज़ल और उसकी परम्परा से भी भली-भाँति परिचित थे इसीलिए वह अपनी बात पूरी शक्ति से हिन्दी ग़ज़ल में कह सके और उसे सँवार सके। और हिन्दी भाषा के शब्दों को उद्वेलित करके उन्होंने हिन्दी-ग़ज़ल का यह नया रूप प्रस्तुत किया। ग़ज़ल में जो छंद प्रयोग होता है वह मूल रूप से फ़ारसी काव्य सौन्दर्य से उद्भूत है परन्तु आज की हिन्दी ग़ज़ल ने खड़ी बोली की ध्वनि और रस को छंदों में जिस ख़ूबसूरती से आत्मसात किया है उससे निश्चित रूप से ग़ज़ल विधा समृद्ध हुई और हिन्दी उर्दू में ही नहीं, अब तो ग़ज़ल गुजराती, मराठी, सिंधी और पंजाबी में भी उसी शिद्दत के साथ लिखी और पढ़ी जा रही है। सन् 1935-36 में प्रगतिशील आन्दोलन के आरम्भ ने हिन्दी-उर्दू के साहित्यकारों को अतीत की रोशनी में वर्तमान में सोचने समझने का रास्ता दिखाया था और उसी रास्ते का एक पड़ाव दुष्यंत बने, जहाँ से कई रास्ते फूटे हैं और अपनी-अपनी मंज़िल की तलाश में अनेक क़ाफ़िले लगातार आगे बढ़ रहे हैं!
'दुष्यंत के बाद यह भी एक क़ाफ़िला है जिसमें ग़ज़लकारों की, ग़ज़लकारों के द्वारा चुनी हुई ग़ज़लें भी है और जाने माने विद्वानों द्वारा ग़ज़लों पर बेबाक चिन्तन भी है। इसलिए सम्पादक का प्रयास सराहनीय है। लेकिन जैसा कि डॉ. शेरजंग गर्ग ने अपने आलेख में कहा है कि वह क़ाफ़िया-बंदी के सरलीकरण से प्रसन्न नहीं हैं, मुझे विश्वास है ग़ज़लगो डॉ. शेरजंग गर्ग की इस टिप्पणी को गम्भीरता से लेंगे। डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा ने जो सन्देह व्यक्त किया है, इस संग्रह के सन्दर्भ में मुझे वाजिब लगता है कि रचनाकाव्य की दृष्टि से जो लिख रहे हैं ये स्वभावतः दुष्यंत के परवर्ती हैं। लेकिन वे उसी बेचैनी, ताप और ऊर्जा के साथ ग़ज़ल को कितना साध पाए हैं यह स्वयं ग़ज़लकारों के आत्मचिन्तन का विषय है। बक़ौल क़मर 'बरतर'-ग़ज़ल अपनी कहानी ख़ुद कहती है-मैं ग़ज़ल हूँ, मेरे लिए आवश्यक है स्वस्थ कल्पना, परिपक्व सोच, भाव तथा भावाभिव्यक्ति के लिए ज़रूरी है 'बहूर', फिर क़ाफ़िया उसके बाद रदीफ़। फिर भी इस संग्रह के सभी ग़ज़लकार अपने इस प्रयास के लिए बधाई के पात्र हैं। यह संग्रह निश्चित ही हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल की ज़मीन को ऊर्जा और शक्ति प्रदान करेगा। नयी ज़मीन की तलाश में मदद करेगा।
यह एक खुली शुरुआत है-अपनी तमाम कमियों और कमज़ोरियों के साथ, पर यह रचना का लोकतन्त्र भी है, पाठक जिसे चाहे अस्वीकार या स्वीकार करे। पाठक ही निर्णायक है।

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