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Vani Prakashan
हर हर्फ़ का हक़ अदा करूँ
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9789369444250
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"‘हर हर्फ़ का हक़ अदा करूँ’ अनुभव-लोक की संवेदनाओं से उपजी कविताओं का संग्रह है। ये कविताएँ अपने काल में विचरते जीवन, समाज, प्रकृति, प्रेम, प्रतिरोध, घृणा, द्वेष और मनुष्यता के निमित्त हर घटित के विभिन्न रंगों को एक विशाल कैनवस पर समेटे हुए हैं। यही कारण कि अगर कहीं गाढ़ा अँधेरा है तो उजास भी कम नहीं।
प्रकृति इस संग्रह में एक सजीव पात्र की तरह उभरती है-कभी जंगल, बादल, बारिश बनकर तो कभी पहाड़ की तरह। यह संग्रह हमें याद दिलाता है कि हम केवल इस धरती पर रहने वाले प्राणी नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ गहरे बँधे हुए सहयात्री हैं। नदी, पहाड़, फूल और आसमान-इन सबके बीच प्रेम पलता है, लेकिन जब हम प्रकृति से दूर होते हैं तो एक अजीब-सा अकेलापन हमें घेर लेता है।
प्रेम और सम्बन्धों की जटिलता भी इन कविताओं मुखर होती है। कभी प्रेम मीठी फुहार की तरह बरसता है, तो कभी यह पीड़ा की लपटों में जलता है। रिश्तों की उलझनें, बिछड़ने का दर्द और मिलने की उम्मीद-इन कविताओं में हर भावना की गूँज है। लेकिन जब समाज के बन्धन और व्यवस्था की कठोरता इन सम्बन्धों पर हावी होती है, तब प्रतिरोध जन्म लेता है। इसलिए संग्रह में अकेलापन और प्रतिरोध ऐसे दो ध्रुव हैं, जो कई बार एक-दूसरे से जुड़े हुए भी दिखते हैं। क्योंकि जो व्यक्ति अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है, वह अक्सर अकेला पड़ जाता है। लेकिन यही अकेलापन उसे और मज़बूत बनाता है, अपने भीतर झाँकने और नये रास्ते तलाशने की प्रेरणा देता है। इस तरह यह संग्रह उन भावनाओं को शब्द देता है, जो अक्सर कहने से रह जाती हैं।
देशभक्ति, आतंकवाद और साम्प्रदायिकता- ये विषय समाज की जड़ों से जुड़े हैं। क्या सच्ची देशभक्ति केवल नारों में होती है या यह कर्तव्यों में भी दिखती है? क्या आतंकवाद केवल बन्दूक़ों से लड़ा जा सकता है या विचारों की ताक़त ही उसका सही जवाब है? जब साम्प्रदायिकता की लपटें समाज को जलाने लगती हैं, तब क्या प्रेम और एकता के शब्द उसे शान्त कर सकते हैं? ये कविताएँ ऐसे ही सवाल उठाती हैं और पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं।
कोरोना महामारी का दौर हम सबके लिए एक परीक्षा की घड़ी थी। इस संकट में पुलिस और अन्य कोरोना-योद्धाओं ने जिस सेवाभाव से कार्य किया, वह इन कविताओं में दर्ज है। तभी तो जहाँ एक ओर डर और अनिश्चितता थी, वहीं दूसरी ओर कर्तव्यनिष्ठा और मानवता की चमक।
कहने की आवश्यकता नहीं कि सुनील प्रसाद शर्मा का यह कविता-संग्रह केवल पढ़ने भर के लिए नहीं, बल्कि हमें अपने समय, समाज और संवेदनाओं के एक वृहद् लोक को नये और गहरे अर्थ के साथ समझने के लिए प्रेरित करता है। इसलिए पाठक जब इन कविताओं को पढ़ेंगे, तो निश्चित ही कहीं न कहीं, इनमें अपना अक्स भी देख पायेंगे।
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ISBN
9789369444250
Publisher:
Vani Prakashan
Publication | Vani Prakashan |
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