हिन्दी की प्रकृति और शुद्ध प्रयोग - किसी भाषा में आने वाले 'विकार' ही उसकी विकास यात्रा के पड़ाव निर्धारित करते हैं। समय, स्थान और कार्यविधि ही इसके निर्णायक तत्त्व हैं। इन सभी का मूलाधार है- 'मनुष्य', जो कि एक सामाजिक प्राणी है। प्रकृति का वह अदम्य साहसी जीव 'मनुष्य', जो वन मानव से सभ्य मानव और एक सूझ-बूझ वाला इन्सान बना है। मानव के विचारों को वहन करने वाली "भाषा" व्यक्ति विशेष के चिन्तन शक्ति एवं लेखन प्रणाली द्वारा अपनी 'प्रकृति को विविध परिस्थितियों तथा अनेकरूप वातावरण में सिंगारती-सँवारती है। हिन्दी की प्रकृति की रामकहानी भी इसी अजस्र प्रवाह की एक वेगवती धारा है। हिन्दी भाषा की प्रकृति के इसी बनते-सँवरते रूप को हमने अपने बुद्धि-विवेक से बोधगम्य करवाने का यथासम्भव प्रयास किया है। हम अपने पूर्ववर्ती और समकालीन भाषाविदों के प्रति आभारी हैं, जिनके भाषा विषयक सिद्धान्त हमारा मार्गदर्शन करते रहे हैं।
"डॉ. ब्रजमोहन -
गणितज्ञ होते हुए भी हिन्दी भाषा और उसके व्याकरण के विकास में सक्रिय योगदान के लिए समादृत विद्वान।
स्कूली शिक्षा मुरादाबाद (उ.प्र.) में एम.ए., एलएल.बी. करने के बाद सन् 1994 में इंग्लैंड से पीएच.डी. की उपाधि। तत्पश्चात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति। वहीं, हिन्दी भाषा और व्याकरण पर कार्य करने का संकल्प और उसे पूरा करने की दिशा में लगातार अध्यवसाय।
हिन्दी की विशिष्ट सेवा के लिए उत्तर प्रदेश राजकीय पुरस्कार से सम्मानित। सेंट्रल हिन्दू कॉलेज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में गणित विभाग के अध्यक्ष और फिर प्राचार्य रहे।
वर्ष 1990 में देहावसान।
प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ : गणितीय कोश, गणित का इतिहास, अर्थ-विज्ञान, अवकलन गणित, मायावर्ग, चिह्न विज्ञान उत्पादन और सांस्कृतिक सन्दर्भ की प्रकृति और शुद्ध प्रयोग, विशेषण-प्रयोग, किस्सा एक से एक, भाषा और व्यवाणित व्यामिति, शुद्ध गणित की पाठचयाँ, रूपान्तर कलन, अंग्रेज़ी-हिन्दी वैज्ञानिक कोश (खण्ड : 1-2), नागरी लिपि : रूप और सुधार, शब्द-चर्चा, मानक हिन्दी आदि।
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