जाने माने इतिहासकार कार्यविधि, दिशा और उनके छल

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"इतिहास के कुछ तथाकथित विद्वान कुछ ऐसा जालसाजी का ताना-बाना बुनते हैं, कुछ ऐसे आरोप लगाते हैं या कहिए कि कुछ ऐसा षड्यन्त्र रचते हैं कि अपने आप में वह विचारधारा मानक शैली का रूप ले लेती है षड्यन्त्र की कहानियाँ गढ़ना उनका ख़ूब आज़माया हुआ हथियार है । उनका अपना एक तन्त्र है । भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् जैसी संस्थाओं पर ऐसे प्रगतिशील इतिहासकारों का क़ब्ज़ा रहना निश्चित ही बहुत बुरी बात थी, लेकिन अन्ततः यह सिद्ध हो गया कि इसके पीछे उनकी चाल थी । इन 'इतिहासकारों' का बड़ा अपराध रहा है वह साझेदारी, जो उन्होंने सच को दबाने और झूठ को उजागर करने में आपस में निभायी है । ये लोग केवल पक्षपाती 'इतिहासकार ' ही नहीं हैं, ये अव्वल दर्जे के भाई-भतीजावादी भी हैं। मैंने कुछ साल पहले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में की गयी नियुक्तियों के मामले में से कुछ की करतूतों का कच्चा चिट्ठा तैयार किया था । भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् में भी उनकी करतूतें वैसी ही रही हैं, जिनकी उनसे अपेक्षा की जा सकती थी। ऐसा कैसे हुआ कि पच्चीस वर्षों तक भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् में केवल उन्हीं की विचारधारा के लोगों की नियुक्ति की जाती रही, ऐसा कैसे हुआ कि रोमिला थापर की परिषद् में चार बार नियुक्ति हुई। उसी प्रकार इरफ़ान हबीब पाँच बार, सतीश चन्द्र चार बार और एस. गोपाल तीन बार परिषद् में नियुक्त किये गये...? अध्यक्ष पद के लिए भी यही रीति अपनायी गयी । "
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