जाति का जहर

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आज के प्रश्न जाति का ज़हर - 
सामाजिक विषमता दुनिया के सभी समाजों में रही है, लेकिन भारत इस मायने में एक अनोखा देश है कि यहाँ जाति प्रथा को शास्त्रीय, सामाजिक एवं राजनीतिक मान्यता दी गई। बेशक इस क्रूर तथा अमानवीय व्यवस्था के ख़िलाफ समय-समय पर विद्रोह भी हुए, किंतु जाति प्रथा का ज़हर कम नहीं हुआ। दिलचस्प यह है कि यह कोई स्थिर व्यवस्था नहीं रही है और जातियों के सोपान क्रम में नये-नये समूह प्रवेश पाते रहे हैं, फिर भी इससे स्वयं जाति प्रथा को कोई धक्का नहीं पहुँचा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत की प्रगति में यह एक बहुत बड़ा रोड़ा है। जिस समाज में आंतरिक गतिशीलता न हो तथा मनुष्य की नियति उसके जन्म के समय ही तय हो जाती हो, वह न तो बाह्य चुनौतियों का मुकाबला कर सकता है और न आंतरिक बाधाओं का। आरक्षण की व्यवस्था ने जाति प्रथा के खूंखार क़िले में गहरी सेंध लगाई है, पर दिक्कत यह है कि वह जातिवाद के प्रसार में सहायक भी हो रहा है। ऐसी स्थिति में जाति को या उसके ज़हर को कैसे खत्म किया जा सकता है ? क्या आधुनिकता के विकास से जाति व्यवस्था अपने आप कमजोर हो जाएगी या इसके लिए कुछ विशेष प्रयास करने होंगे ? आखिर क्या वजह है कि जो हिन्दू एकता की बात कहते नहीं अघाते, वे हिन्दू समाज में आंतरिक सुधार के लिए सबसे कम प्रयत्नशील हैं ? क्या कट्टरपंथ और उदारवाद का द्वन्द्व आज अपने निर्णायक चरण में है या हमें कुछ और इंतजार करना पड़ेगा-जब तक भारत का पूरा आर्थिक विकास नहीं हो जाता ? जाति प्रथा की अमानवीयताओं और उससे संघर्ष को विस्तृत फलक पर देखनेवाली एक महत्वपूर्ण पुस्तक | 
जाति का जहर - 
जाति प्रथा को तभी से चुनौती मिलती आई, जब से वह अपने अमानवीय अस्तित्व में आई। फिर भी जाति का जहर है कि आज भी बना हुआ है। बेशक आधुनिकता की शक्तियों ने उसे कुछ कमजोर किया है और आरक्षण व्यवस्था ने उसे गंभीर चुनौती दी है, लेकिन जातिविहीन समाज का सपना अभी भी एक यूटोपिया ही है। उलटे कई ऐसी प्रक्रियाएँ चल रही हैं, जो जाति प्रथा को मजबूत करने वाली हैं। ऐसी स्थिति में जाति से संघर्ष की रणनीति क्या हो सकती है ? जाति प्रथा की जटिलताओं का विश्लेषण ही नहीं, बल्कि उससे संघर्ष की अंतर्दृष्टि भी इस पुस्तक की उल्लेखनीय विशेषता है।
जाति प्रथा का विनाश, इतिहास की चुनौती, गाँव से शहर तक, मेरी जाति, मुसलमानों में ऊँच-नीच, जाति क्यों ज़हर बन गयी, जातिविहीन समाज का सपना, आरक्षण तो सवर्णों का होना चाहिए, सामाजिक न्याय-मीडिया और गांधी, संस्कृतीकरण और पाश्चात्यकरण, बार-बार जन्म लेती है जाति, जाति कौन तोड़ेगा ।

ISBN
9788170555605
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