जैन दर्शन का अस्तित्ववादी चिंतन
जैन दर्शन का अस्तित्ववादी चिन्तन
वैश्विक दर्शन और साहित्य के इतिहास में पिछली सदी बौद्धिक पुनर्जागरण का काल रही है। न केवल भारतीय चिन्तकों, बल्कि पूर्व और पश्चिम के कितने ही मनीषी दार्शनिकों ने अपने अपने ढंग से मानवीय अस्तित्व का अन्वेषण और विश्लेषण कर सांसारिक सुख-दुख की त्रासदी तथा मृत्यु की अपरिहार्यता का भयावह चित्र खींचा है।
इसी सन्दर्भ में भारतीय इतिहास की जैन चिन्तनधारा, जो जैन तीर्थंकरों द्वारा हजारों वर्ष पूर्व प्रवर्तित हुई थी, अस्तित्ववाद के नाते जीव की नियति और पुरुषार्थ का विश्लेषण करती रही है। आज भी उस चिन्तन की पूरी प्रासंगिकता है, चिन्तन जो मनोवैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरा है।
प्रस्तुत कृति के मनीषी लेखक का उद्देश्य यथासम्भव सरल शैली में जैन दर्शन के अस्तित्ववादी चिन्तन से प्रबुद्ध पाठक को इस तरह रू-ब-रू कराना है कि उसपर जैनागम की पारिभाषिक शब्दावली का दबाव न पड़े और विषय को आत्मसात् करने में सहजता रहे। लेखक इतना तो मानकर चला है कि पाठक को आधुनिक पाश्चात्य एवं भारतीय चिन्तन का सामान्य ज्ञान उसकी सोच की पृष्ठभूमि में पहले से अर्जित है। पुस्तक के उत्तरार्ध में लेखक ने आधुनिक मनोविज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों को आधार बनाकर सांसारिक विभीषिका के निवारणार्थ जैन साधना में प्ररूपित ध्यान की प्रक्रिया की ओर पाठक को आकर्षित किया है। लेखक का यह प्रयास स्तुत्य है कि उसने जैन दर्शन और उसके कर्मसिद्धान्त जैसे दुरूह विषय को इतना सरल और बोधगम्य बनाया।
Publication | Bharatiya Jnanpith |
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