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जलावतन

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जलावतन - 
लोलुप सर्वसत्तात्मक राजनीति में हिंसक रूप ने पिछले दिनों जो विनाश-लीला की है, उसका एक रूप विस्थापन है। समाचार और जानकारी के तौर पर यह मीडिया में पर्याप्त आया है और आ रहा है। विस्थापन की दारुणता फ़िलिस्तानी कवियों में मार्मिक रूप में दिखलायी पड़ती है जो स्वाभाविक है। लीलाधर मंडलोई की यह रचना हिन्दी में इस विषय पर प्रकाशित पहली है। मुझे इन कविताओं को पढ़कर यह लगा कि कवि ने विस्थापन के दृश्य प्रस्तुत किये हैं, वे काल्पनिक नहीं देखे हुए हैं। कविता की कोई विषयवस्तु है लेकिन कविता विषय नहीं 'वस्तु' को दिखाती और उससे पाठक को प्रभावित करती है। इन कविताओं में विवरण कम है। दृश्यों में टूटन और बिखराव हैं, जो स्थापित होने की स्थिति का निषेध करते हुए विस्थापन का शिल्प बनती हैं। भावी रूप और वस्तु का एकात्म बनती हैं। मंडलोई स्थिति को संकलित नहीं करते वे उसे साक्षात् करते हैं 
बचे हुओं के पास कुछ न था
एक तोता रह सकता था कहीं और 
गाय भी जा सकती थी कहीं जंगल में 
बिल्ली और कुत्ता तो कम से कम रह ही सकते थे 
इस उजड़े दयार में 
जब कोई नहीं आ रहा था साथ 
तोता, गाय और बिल्ली, कुत्ता 
चले आये पीछे इस तम्बू में 
तोता, गाय, बिल्ली और कुत्ता का विस्थापित का साथ न छोड़ना, सहानुभूति नहीं (सहानुभूति, वस्तु (व्यथा) को शब्द में बदल कर छुट्टी पा लेती है) वे पशु-पक्षी विस्थापन के साथ विस्थापित हो गये हैं। स्वयं वस्तु बन गये हैं। व्यथा संवेदना के शीर्षक या विवरण नहीं। यह कवि के शिल्प की सिद्धि है।
शिल्प की सिद्धि यह कि यह संवेदना तक पहुँच ख़ुद लुप्त हो जाती है।
देश-विहीन जाति, नाम विहीन तो नहीं होती। लेकिन विस्थापित का नाम उसके जातीय अपमान का पर्याय बन जाता है। युद्ध और विस्थापन की भयावहता का अनुभव अस्तित्व को नष्ट कर देता है। नष्ट हो जाने से बदतर है अस्मिता रहित हो कर ऐसा जीवन जीना जो अपमान का स्रोत है। ऐसे बच्चे की कल्पना करें जो अपने मारे गये माँ-बाप का चेहरा भी नहीं याद कर सकता। और जो बच्चा कहता है—
"मुझे नफ़रत के साथ वे फ़िलिस्तीनी पुकारते हैं।" 
मंडलोई ने इस लगभग वैश्विक भयावहता को कविता के शब्दों में खींच लिया है। ऐसे खींच लिया है जैसे वनस्पतियों और फल-फूलों का अर्क (रस) आदिवासी अपने देशज संसाधनों से उतार लेते हैं। ये कविताएँ करुणा का रस नहीं करुणा का कालकूट सा प्रभाव पैदा करती हैं।
जलावतन की कविताओं को एक-साथ पढ़ें तो इसमें एक गाथा उभरती है। वे काल-घटना की क्रमबद्धता में ये कथा भी कहती है यानी उनमें प्रबन्धात्मकता भी है। वस्तुतः विस्थापन की गाथा प्रबन्धात्मकता—किसी महाभारत की कथा या बृहत् उपन्यास की माँग करती है।
मंडलोई की सर्जनात्मक प्रामाणिकता का लक्षण यह है कि उनके विस्थापन दुख में उनका अपना विस्थापन अनुभव भी घुल-मिल गया है जो उनकी इन कविताओं की काव्य वस्तु को आत्मसात् कर लेने का प्रमाण है। इस संकलन में मटमैले ताबीज़ वाले फ़िलिस्तानी के साथ 'गोबर लिपा आँगन' और 'माँ की नर्मदा-किनार' वाली साड़ी की सिर पर पल्ले की याद भी नत्थी है।
जलावतन हिन्दी की काव्य वस्तु में नया जोड़ने वाली किताब है। —विश्वनाथ त्रिपाठी

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लीलाधर मंडलोई (Leeladhar Mandaloi)

लीलाधर मंडलोई

जन्म : 15 अक्टूबर, 1953, छिंदवाड़ा के गाँव गुढ़ी में।

प्रमुख कृतियाँ : घर-घर घूमा, रात-बिरात, मगर एक आवाज़, काल बाँका तिरछा, एक बहोत कोमल तान, महज़ शरीर नहीं पहन रखा था उसने, लिखे में दुक्ख, मनवा बेपरवाह, भीजै दास कबीर और जलावतन (कविता-संग्रह); अर्थ जल, काला पानी, कवि का गद्य, दिल का क़िस्सा (निबंध); कविता का तिर्यक (आलोचना); इनसाइड लाइव (मीडिया); दाना पानी, दिनन-दिनन के फेर, राग सतपुड़ा और ईश्वर कहीं नहीं (डायरी); पहाड़ और परी का सपना, पेड़ भी चलते हैं, चांद का धब्बा (बाल साहित्य); अंदमान निकोबार की लोक कथाएँ और ‘मधुरला’ बुंदेली लोक गीतों का संग्रह (लोक साहित्य); कविता के सौ बरस, समकालीन स्त्री स्वर, पास-पड़ोस (सार्क देशों का साहित्य), आपदा और पर्यावरण, विस्मृत निबंध (सम्पादन); मां की मीठी आवाज़ (अनातोली पारपरा की रूसी कविताओं का अनुवाद) और पानियों पर नाम (शकेब जलाली की ग़ज़लों का लिप्यंतरण) (अनुवाद) ओड़िया, बंगला, गुजराती, पंजाबी, मराठी, उर्दू, अंग्रेजी, रूसी, नेपाली में कविताओं के अनुवाद प्रकाशित।

कुछ फिल्मों का निर्माण व निर्देशन। अमूर्त छायाचित्रों की तीन राष्ट्रीय एकल प्रदर्शनियाँ।

मुख्य सम्मान : कबीर सम्मान, पुश्किन सम्मान, नागार्जुन सम्मान, रामविलास शर्मा सम्मान, रज़ा सम्मान, शमशेर सम्मान, किशोरी अमोनकर सरस्वती सम्मान, प्रमोद वर्मा काव्य सम्मान, साहित्यकार सम्मान, कृति सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार।

ई-मेल : leeladharmamdloi@gmail.com

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