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जंगल की हक़दारी राजनीति और संघर्ष

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जंगल की हक़दारी : राजनीति और संघर्ष - 
जंगल की ज़मीन पर आदिवासियों के अधिकार का मसला काफ़ी विवादित रहा है। संसाधनों से भरे होने के कारण विकास नाम पर होने वाली हर गतिविधि के केन्द्र में जंगल और उसके आस-पास बसे गाँव आ जाते हैं। इसी वजह से राज्य भी जंगलों पर अपना दावा करता है। आर्थिक उदारीकरण के बाद के दौर में तो ख़ास तौर पर विकास के नाम पर ये संसाधन न केवल निजी कम्पनियों के लिए खोले जा रहे हैं, बल्कि इस पूरी प्रक्रिया में आदिवासियों की मर्जी की कोई परवाह नहीं की जा रही है। आदिवासी समुदायों की जीविका का मुख्य आधार जंगल है, लेकिन उनकी ज़िन्दगी पूरी तरह से वन-विभाग के अधिकारियों की मनमर्जी पर निर्भर हो चुकी है। ज़मीन का पट्टा न होने की स्थिति में इन्हें न केवल वन-अधिकारियों को घूस या नज़राना देना पड़ता है, बल्कि जंगल और वनोपज का इस्तेमाल करने के लिए भी उनकी इजाज़त लेनी पड़ती है। इन्हीं सब कारणों से आदिवासियों की स्थिति एक लोकतान्त्रिक देश के अधिकारहीन नागरिकों की तरह हो गयी है, जिसके परिणामस्वरूप जंगल की ज़मीन और इसके संसाधनों के दोहन के ख़िलाफ़ स्थानीय समुदायों का प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है।

प्रस्तुत अध्ययन यह पता लगाने की कोशिश करता है कि आधुनिकता के विविध सकारात्मक या नकारात्मक आयामों का जंगल और इसके साथ जुड़े लोगों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है? अर्थात् जनगणना, जंगल, अनुसूचित जनजाति, निजी सम्पत्ति,
क़ानून का शासन जैसी श्रेणियों के निर्माण ने इनके जीवन में क्या बदलाव किये हैं? आदिवासी समुदायों की ज़िन्दगी के विभिन्न आयाम किस तरह जंगल से जुड़े हुए हैं? राज्य और इसकी प्रतिनिधि संस्था के रूप में वन विभाग की कार्यप्रणाली और राज्य की दूसरी नीतियों का इनके जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ा है? औपनिवेशिक या उत्तर औपनिवेशिक राज्य की नीतियों ने इन समुदायों को किस हद तक जंगल और इसके संसाधनों पर हक़ दिया है? क्या जंगल की जमीन या इसके आस-पास के क्षेत्रों में बसे समुदायों द्वारा 'अतिक्रमण' किया गया है? इस पूरे सन्दर्भ में वन अधिकार कानून किस रूप में समझा जा सकता है? क्या यह आदिवासियों को जंगल की ज़मीन और इसके संसाधनों पर हक़ देता है? क्या नया क़ानून वन्य जीवों के संरक्षण की मज़बूत व्यवस्था करता है? लोकतान्त्रिक समाज में क़ानूनों द्वारा हुए बदलाव किस रूप में देखे जा सकते हैं? इन्हें किस हद तक प्रगतिशील माना जा सकता है? फ़ील्ड अध्ययन की विधि अपना कर इस शोध प्रबन्ध में इन सभी पहलुओं की पड़ताल करते हुए क़ानून बनने की प्रक्रिया, उसके तर्कों और क़ानून की सम्भावनाओं और सीमाओं का विश्लेषण किया गया है।

अन्तिम आवरण पृष्ठ - 
कमल नयन चौबे की इस सामयिक और महत्त्वपूर्ण कृति में वन अधिकार क़ानून बनने और लागू होने का व्यापक विवरण पहली बार पेश किया गया है। कमल उस सन्दर्भ का परिष्कृत विश्लेषण करते हैं जिसके तहत हमें यह क़ानून समझना चाहिए। उन्होंने इस क़ानून से जुड़े कुछ अहम सवालों की गहराई से विवेचना की है। कमल के तर्क महज़ सैद्धान्तिक नहीं हैं। कई जगह वे गहन अनुभवसिद्ध शोध पर आधारित हैं। दरअसल उनकी यह रचना बहु-स्थानिक अनुसन्धान का बेहतरीन उदाहरण है।
-नंदिनी सुन्दर, प्रोफ़ेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय

कमल नयन चौबे की यह किताब हिन्दी में लिखी गयी उन चुनिन्दा किताबों में से एक है जिसके पन्नों पर मौजूदा समाज-विज्ञानी शोध और सिद्धान्तीकरणों से सीधे संवाद किया गया है। कमल की किताब का विषय आदिवासी समाज और आधुनिकता से उनका बनता-बिगड़ता रिश्ता है। वे अपनी किताब में सरकार और क़ानून के साथ-साथ इस समाज के रिश्तों की पेचीदगी उजागर करते हैं, जिसमें एक तरफ़ ज़मीन के इर्द-गिर्द संघर्ष है, सम्पत्ति के सवाल पर जद्दोजहद है और दूसरी तरफ़ वन अधिकार अधिनियम जैसे क़ानूनों का निर्माण है। इस सन्दर्भ में कमल मध्यवर्गीय कार्यकर्ताओं के साथ आदिवासी समाज के रिश्तों की शिनाख़्त करके इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि एक मायने में यहाँ 'लीगलीज़म फ्रॉम बिलो' देखने को मिलता है। इस नज़रिये से वे पार्थ चटर्जी के सूत्रीकरण 'राजनीतिक समाज' से भी जिरह करते हैं।
-आदित्य निगम,
प्रोफ़ेसर, विकासशील समाज अध्ययन पीठ, दिल्ली

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