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कम्बख़त इस मोड़ पर

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क़म्बख्त इस मोड़ पर - 
मेले में खो गया था मैं एक बार... ऐसे ही। उँगली जिसकी थामे था, वही मुझे भूल गया था। ... भीड़ का रेला आया तो पता नहीं कैसे उस उँगली की पकड़ छूट गयी।... इधर बच्चा बिलख रहा है - भीड़ को उसका बिलखना नहीं सुनाई देता - भीड़ को वह दीखता तक नहीं; और उधर उसका पिता है, जो भूल ही गया है कि उसका बच्चा जो उसके साथ था, उसके साथ नहीं है। जाने कब कैसे कहाँ उससे अलग हो गया है।
इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि मेरे साथ कुछ वैसा घटित हुआ था कि नहीं... वह बच्चा मेरे भीतर अब भी उसी तरह बिलख रहा है...हर सान्त्वना से परे।... यह दुनिया उसके लिए उन रौंदते-कुचलते पाँवों- असंख्य पाँवों -का ही रेला है, जिससे बाल-बाल बच जाना एक अनर्गल संयोग भर है। सचाई जो है, वह यही है कि वह अपने पिता को पुकार रहा है बिलखता हुआ... और पिता उसकी पुकार की पहुँच से बाहर है।
पिता! तुम मिल गये-मैंने पहचान भी लिया तुमको। काफ़ी दूर तक यह भ्रम बना रहा और एक दिन फिर अचानक वह भ्रम भी टूट गया। दिनदहाड़े, उसी तरह। बिना किसी मेले की रेलमपेल के, तुम्हारी पहचान फिर से ग़ुम हो गयी-कभी वापस न लौटने के लिए।
तो क्या अब जाकर वह मुझे वापस मिलने जा रही है? इतने बरसों... युगों के बाद?
सच में, तुमसे बात करते-करते कई बातें मेरी समझ में आ रही है जो पहले कभी नहीं आयी थीं। आमने-सामने बात नहीं हो सकती। आमने-सामने सिर्फ़ बहस हो सकती है, चोट पर चोट हो सकती या लम्बी-लम्बी चुप्पियाँ, अबोला तक हो है... सकता है।... पहले की बात और थी, कहके हम आज की समस्या को नहीं निपटा सकते। ज़माना बदल गया है। आज हम खेल तक खेल की तरह नहीं खेलते। बग़ैर 'किलर इंस्टिंक्ट' के आज खेल की बात भी नहीं होती। कैसे भयानक समय में जी रहे हैं हम!...हम, यानी हमारे बच्चे। हमारी किशोर और नौजवान पीढ़ी। भुगतना तो उन्हें है: हम तो अपना जीवन जी चुके। क्या ज़रूरी है कि हमारा जिया और भुगता हमारे बच्चों के भी काम का हो! वह निरर्थक हो सकता है, यह हम क्यों नहीं क़बूल करना चाहते?

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