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Vani Prakashan

काव्योत्सव : राजी सेठ की कविताएँ (गुच्छा)

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"काव्योत्सव : राजी सेठ की कविताएँ (गुच्छा) : स्मृति की न जाने कितनी तहें होती हैं, जो अपनी करवटों में, न जाने कितने जीवन-अनुभव और ‘बोध' रह-रहकर झलका देती हैं- उनकी यह 'झलक' मात्र हमें जीवन की निरन्तरता-अनन्तता का अहसास तो कराती ही है, जीवन को जीने लायक-चाहें तो कह लें सहन करने लायक भी बनाती है। हाँ, राजी सेठ की अग्निगर्भा शब्द में संकलित कविताएँ स्मृति की करवटों से उत्पन्न, ‘जीवन-झलकियों' की सरणियाँ हैं, जो हमें प्रिय हो उठती हैं। ये 'झलकियाँ' कभी पारदर्शी रूप में सामने आती हैं, कभी अभेद्य भी हो उठती हैं—पर, यह भरोसा देना-दिलाना बन्द नहीं करतीं कि इन्हीं में छिपे हैं, लिपटे हैं, जीवन-मर्म, और इनके निकट जाना, मानो जीवन जीने की, उसे समझने की, एक अनिवार्य शर्त है। कविता लिखने की तो है ही। 'बहुत-बहुत अखरा' कविता की पंक्तियाँ हैं : बहुत-बहुत अखरा/धूप के टुकड़े-सा/तुम्हारी देहरी से/चले आना/अपना/वे क्षण/जो उस दर्द की पहचान देते रहे/कुल वही/मेरे साथ/मेरे होकर रहे। यह भी कुछ ग़ौर करने वाली बात है कि जहाँ स्मृतियों के विवरणों की ‘झलकियाँ' हमें अलग से, दृश्य-रूप में, नहीं दीखतीं, वहाँ भी वे मौजूद हैं उन्हीं से निःसृत हुए हैं जीवन-अनुभव। जीवन मर्म। ‘मिट्टी की देह’ कविता को पढ़ते हुए हमें कुछ ऐसा ही बोध तो होता है- (1) सुनती नहीं हो/ कितना बोल रहीं ये भित्तियाँ। शिखर/उतने ही नहीं थे जितने मैंने देखे। (3) मिट्टी की देह में/ थरथराते आलोक का आवास/मरना और जीना कितना पास-पास। हम जानते हैं कि राजी सेठ के साहित्य-संसार में गद्य भी प्रचुर मात्रा में है। उनका अपना एक सराहनीय कथा-संसार है। पर, कविता में वे शब्द-संक्षिप्ति को बेहद महत्त्व देती हैं : शब्दों के आर-पार। उनके बीच। उनके अन्तराल में। उनके अन्तर्गुफन में, वह अनुभवों को, विन्यस्त करती हैं, पिरोती हैं, कि हम भी, उस ‘अनकहे’ को छू सकें, पा सकें, ढूँढ़ सकें, अपनी तरह से, अपनी तईं, जिस तरह कविता ढूँढ़ना-पाना चाह रही है : उनकी कविता दरअसल अपनी ‘काया’ में, सिर्फ़ पढ़ने की नहीं, 'देखने' की चीज़ भी बन जाती है : एक मूर्त-अमूर्त चित्र की तरह । इसीलिए वह एक अलग तरह से, अपनी तरह से, हमें आकर्षित करती है। "
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9789362878021
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राजी सेठ (राजी सेठ )

"राजी सेठ - जन्म: नौशेहरा छावनी (पाकिस्तान), सन् 1935। शिक्षा: एम.ए. अंग्रेज़ी साहित्य विशेष अध्ययन–तुलनात्मक धर्म और भारतीय दर्शन। लेखन: 1974 से प्रारम्भ। उपन्यास, कहानी, कविता, समीक्षा, निबन्ध आदि सभी विधाओं में। प्रकाशन: तत्-सम (उपन्यास); निष्कवच (दो लघु उपन्यास); अन्धे मोड़ से आगे, तीसरी हथेली, यात्रा-मुक्त, दूसरे देशकाल में, यह कहानी नहीं, सदियों से, ग़मे-हयात ने मारा (कहानी-संग्रह); अगेन्स्ट मायसेल्फ़ ऐंड अदर स्टोरीज़, अनआड (अंग्रेज़ी में अनूदित); मेरे लई नई (पंजाबी में अनूदित); मीलों लम्बा पुल (उर्दू में अनूदित)। अनुवाद: रिल्के के पत्रों के दो संग्रह : पत्र—युवा कवि के नाम तथा रिल्के के प्रतिनिधि पत्र। दिनेश शुक्ल के नाटक 'पल्लवी परणी गई' का हिन्दी अनुवाद। सम्मान: अनन्त गोपाल शेवड़े पुरस्कार, हिन्दी अकादमी सम्मान, भारतीय भाषा परिषद् पुरस्कार, वाग्मणि सम्मान, रचना पुरस्कार। "

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