केरल की सांस्कृतिक विरासत
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आधुनिक भाषापरक, केरल राज्य का आविर्भाव 1956 में हुआ। अगले वर्ष जनकीय चुनाव में साम्यवादियों ने राजनीतिक अधिकार पाया और दो वर्षों की अवधि तक उन्होंने शासन किया। बाद में आई कई सरकारों में वे भागीदार बने। राजनीतिक परिवर्तनों के बावजूद इस क्षेत्र ने सदियों से लेकर एक धनी सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखा है। क्लासिकल एवं लोकरंगमंचों में केरल की अपनी एक धनी विरासत है। तेय्यम जैसी उसकी कुछ अनुष्ठान कलाओं का उदय जातिपरक है। विश्व रंगमंच में कूडियाट्टम और कथकली के क्लासिकल रंगमंच का महनीय स्थान है। इस क्लासिकल कला परिवेश के ठीक विपरीत यहाँ सैकड़ों लोक कलारूप हैं, जो ग्रामीण जनता के विभिन्न धर्मों एवं जातियों द्वारा सुरक्षित रखे गए हैं।
भारतीय भाषाओं के बीच मलयालम उसकी सारी आधुनिक शाखाओं के प्रचुर विकास के कारण एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। 'दास कैपिटल' से लेकर विश्व क्लासिक की लगभग सारी रचनाएँ मलयालम में अनूदित होकर आई हैं। उसके कुछ रचनाकार, जैसे तकंषी, बषीर, एम. टी. वासुदेवन नायर आदि अपनी रचनाओं के कारण भारत के बाहर भी प्रसिद्ध हैं। अंतर्देशीय स्तर पर उल्लेखनीय कुछ पर्यटन केंद्र भी यहाँ हैं। तेक्कडी के वन्यजीवन संरक्षण केंद्र, कोवलं का समुद्र तट, कोच्चि की झील और कायल आदि हज़ारों दर्शकों को आकर्षित करते हैं। गुरुवायूर मन्दिर, शबरि मला तीर्थस्थान आदि प्रसिद्ध हिंदू तीर्थ स्थान भी भारत के विभिन्न भागों से भक्तों को आकर्षित करते हैं।
वस्तुतः नई संस्कृति और विरासत अपने अंतिम बिंदु पर स्थित है। परंपरागत संस्कृति की जड़ें उखाड़ी नहीं गई हैं किंतु वे क्षण-क्षण परिवर्तनशील हैं। सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों का यह उल्लेखनीय परिवर्तन देखकर दृढ़ता के साथ कह सकते हैं कि केरल के परंपरागत सूत्र का सर्वनाश नहीं हुआ है। परंपरा एवं आधुनिकता दोनों ने जीवन और उसकी विकास की गति पर प्रभाव डाला है।