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क्याप

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'क्याप'-मायने कुछ अजीब, अनगढ़, अनदेखा-सा और अप्रत्याशित। जोशी जी के विलक्षण गद्य में कही गयी यह ‘फसक' (गप) उस अनदेखे को अप्रत्याशित ढंग से दिखाती है, जिसे देखते रहने के आदी बन गये हम जिसका मतलब पूछना और बूझना भूल चले हैं... अपने समाज की आधी-अधूरी आधुनिकता और बौद्धिकों की अधकचरी उत्तर-आधुनिकता से जानलेवा ढंग से टकराती प्रेम कथा की यह 'क्याप' बदलाव में सपनों की दारुण परिणति को कुछ ऐसे ढंग से पाठक तक पहुँचाती है कि पढ़ते-पढ़ते मुस्कराते रहने वाला पाठक एकाएक ख़ुद से पूछ बैठे कि 'अरे! ये पलकें क्यों भीग गयीं।' यथार्थ चित्रण के नाम पर सपाटे से सपाटबयानी और फार्मूलेबाज़ी करने वाले उपन्यासों कहानियों से भरे इस वक़्त में, कुछ लोगों को शायद लगे कि 'मैं' और उत्तरा के प्रेम की यह कहानी, और कुछ नहीं बस, 'ख़लल है दिमाग का', लेकिन प्रवचन या रिपोर्ट की बजाय सर्जनात्मक स्वर सुनने को उत्सुक पाठक इस अद्भुत ‘फसक' में अपने समय की डरावनी सचाइयों को ऐन अपने प्रेमानुभव में एकतान होते सुन सकता है। बेहद आत्मीय और प्रामणिक ढंग से। गहरे आत्ममन्थन, सघन समग्रता बोध और अपूर्व बतरस से भरपूर ‘क्याप' पर हिन्दी समाज निश्चय ही गर्व कर सकता है। -पुरुषोत्तम अग्रवाल

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