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लोकलीला
 राजेन्द्र लहरिया का यह उपन्यास 'लोकलीला'  ग्राम्य-जन-जीवन का आख्यान है, पर यह आख्यान ग्रामीण जन-जीवन की सतह पर दिखाई देनेवाली गतिविधियों का ही नहीं, बल्कि उनकी तहों में मौजूद सामन्ती एवं मनुष्यविरोधी प्रवृत्तियों की शिनाख़्त का भी है।
'लोकलीला'  उपन्यास ज़मींदारी काल के सरेआम खुले क्रूर सामन्ती चेहरे से लेकर भारत को आज़ादी मिलने के बाद के लगभग सत्तर साल गुज़रने तक के समय के दौरान मौजूद रहे आये लोकतन्त्रीय मुखावरण के पीछे छिपे जनविरोधी और अमानवीय नवसामन्ती चेहरे की पहचान को अपने कथा-कलेवर में समेटता है।
'लोकलीला'  उपन्यास लोकतन्त्र के उस 'अँधेरे'  की आख्या-कथा है, जो देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था विधान के रहे आने के बावजूद, लोकतन्त्र को एक छद्म साबित करता हुआ अभी तक लगातार जारी है। 
सक्षम भाषा-शिल्प में रचित एक मर्मस्पर्शी औपन्यासिक कृति!

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राजेन्द्र लहरिया (Rajendra Lahariya)

"राजेन्द्र लहरिया -जन्म : 18 सितम्बर, 1955 ई. को, मध्य प्रदेश के ग्वालियर ज़िले के सुपावली गाँव में।शिक्षा : स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य) ।प्रकाशित कृतियाँ : कहानी-संग्रह : आदमी बाज़ार(1995), यहाँ कुछ लोग थे (2003), बरअक्स (2005), युद्धकाल (2008), सियासत (तीन आख्यान) (2018);लघु उपन्यास : राक्षसगाथा (1995), जगदीपजी की उत्तरकथा (2010), यक्षप्रश्न-त्रासान्त (2015), अग्नि-बीज (2018), अन्धकूप (2019); उपन्यास : आलाप-विलाप (2011), यातनाघर (2015), लोकलीला (2017), समय-रथ के घोड़े (2019), द डार्क थियेटर (2021);आत्म-आख्यान : मेरी लेखकीय अन्तर्यात्रा (2016);कथा-संचयन : राजेन्द्र लहरिया की चुनिन्दा-चर्चित कहानियाँ (2022), चुनिन्दा कहानियाँ (2023) ।बीसवीं शताब्दी के नौवें दशक में कथा-लेखन की शुरुआत करने वाले प्रमुख कथाकारों में शुमार। तब से अद्यावधि निरन्तर रचनारत • हिन्दी साहित्य की प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित अनेक कहानियाँ महत्त्वपूर्ण कहानी-संकलनों में संकलित कई कथा-रचनाओं का मलयालम, उर्दू, ओड़िया, मराठी, पंजाबी आदि भारतीय भाषाओं एवं अँग्रेज़ी भाषा में अनुवाद लेखन के साथ-साथ, गाहेबगाहे चित्रांकन भी करते हैं। ई-मेल : lahariya_rajendra@yahoo.com"

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