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महाबन्धो (भाग-4)

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Mahabandho (Vol.4)
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महाबन्धो
समस्त जैनवाड्मय में बन्ध (कर्म) के विषय में भगवन् भूदबली कृत 'महाबन्धो' (भाग : 1-7 तक) श्रेष्ठ रचना है। इतना ही नहीं, विश्व के कर्म-सम्बन्धी साहित्य में यह अत्यन्त प्राचीन, पूज्य तथा प्रामाणिक ग्रन्थ होने के कारण यह महाशास्त्र भूदबलि स्वामी के पश्चाद्वर्ती प्रायः सभी महान शास्त्रकारों का बन्ध के विषय में मार्गदर्शक रहा है।
'महाबन्धो' सदृश शास्त्र के परिशीलन से प्राणी को पता चलता है कि किस-किस कर्म का मेरे साथ सम्बन्ध होता है, उसके स्वरूपादि का विशद बोध होने से राग, द्वेष तथा मोह का अध्यास एवं अभ्यास मन्द होने लगता है। आर्त और रौद्र नामक दुर्ध्यार्नों का अभाव होकर धर्मध्यान की विमल चन्द्रिका का प्रकाश तथा विकास होता है जो आनन्दामृत को प्रभावित करती है और मोह के सन्ताप का निवारण करती है। समुद्र के तल में डुबकी लगानेवालों को बाह्यजगत् की शुभ, अशुभ बातों का पता नहीं चलता; इसी प्रकार कर्मराशि का विशद तथा विस्तृत विवेचन करनेवाले इस ग्रन्थार्णव में निमग्न होनेवाले मुमुक्षु के चित्त में राग-द्वेषादि सन्तापकारी भाव नहीं उत्पन्न होते। वह बड़ी निराकुलता तथा विशिष्ट शान्ति का अनुभव करता है।

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