मेरी बस्तर की कहानियाँ
मानव के संघर्ष की गाथा जहाँ से शुरू होती है, आज भी आदिवासी वहीं खड़े दिखते हैं। बेशक, यह हमारे पूर्वज तथा पुरखा हैं, पर आश्चर्य प्रगति की इस दौड़ में यह कैसे पीछे छूट गये। मनुष्य जन्म से ही एक घर, परिवार और अपनों की चाहत में सारी उम्र गँवा देता है। सारी उम्र वह बस एक घर की ही फेरी लगाता प्राण त्याग देता है। घर के मेहराब, ताक, दरो-दीवारों पर उसकी अपनी सुगन्ध बसी होती है, उसके दुःख-सुख और संघर्ष की इबारत सबको टटोल-टटोलकर छू-छू कर ही तो उसके नन्हे-नन्हे पैर कदम-ब-कदम ज़िन्दगी की ओर आगे बढ़ते हैं। सारी उम्र वह उन्हें नहीं भूल पाता। अपनी संस्कृति से आज भी अमीर-धनवान यह आदिवासी मनुष्य के इतिहास की लम्बी यात्रा में हमेशा छले गये। अपने-आप में सिमटकर, सिकुड़कर, ठिठुरकर रह गये। बाहर की दुनिया से दूर इन्होंने अपनी अन्धी दुनिया बसा ली है। जिस तरह चींटियाँ अपने झुण्ड में, कबीले में रहती हैं, ऐसे ही इन्होंने भी अपने को बाहर की दुनिया से हटाकर अलग कर लिया है। प्रश्न यहाँ इनसान की हैसियत तथा आर्थिक सम्पन्नता की बहस का नहीं है, बल्कि आदमी के घटते और बढ़ते कद का, उसकी अपनी औकात का है। वर्तमान तथा भविष्य के निर्माण में कभी उसके श्रम, भावना, प्रतिष्ठा को क्यों दर्ज नहीं किया गया? एक ओर तो दूसरे सीढ़ी लगा-लगाकर ऊँचाइयाँ लाँघते गये, वहीं यह जहाँ के तहाँ आज भी खड़े दिखते हैं। मुझे प्रसन्नता तथा गर्व है कि मेरा जन्म तथा बचपन आदिवासियों के बीच ही हुआ तथा गुजरा। मैं इन्हीं के हाथों पली-बढ़ी। इन्हीं की कहानियाँ, बातें सुनती। इन्हीं के दुःख में रो पड़ती तथा इनके सुख में प्रसन्न हो जाती। मैंने अपनी पहली कहानी भी इन्हीं पर लिखी। 'जंगली हिरनी' बस्तर के आदिवासी बाला पर लिखी मेरी पहली कहानी थी, जो अक्टूबर 68 में 'धर्मयुग' में छपी थी। मैंने हर उपन्यास तथा कहानियों में आदिवासियों को लिखा है। 'जगली हिरणी' कहानी से लेकर 'पासंग' उपन्यास सब में आदिवासी मौजूद हैं। यूँ तो मेरे पूरे साहित्य में आदिवासी तथा जंगल की गन्ध मौजूद। है, फिर भी मैंने विशेष कहानियाँ निकाली हैं। 'मेरी बस्तर की। कहानियाँ' कहानी संग्रह आज आपके हाथों में सौंप रही हूँ।