मेरी जेल यात्रा एक कहानी
मेरी जेल यात्रा : एक कहानी -
आप सोच रहे होंगे कि अचानक 50 वर्षों बाद मुझे लेखक बनने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? आपको यह जानकर कदाचित् आश्चर्य होगा कि इस पुस्तक के लेखन का कार्य मेरे द्वारा ज़िला कारागार लखनऊ की एक बैठक में विचाराधीन बन्दी के रूप में एक फटे (फ़र्श पर बिछे बिस्तर) पर बैठकर प्रारम्भ किया गया था। इस बैठक में मेरे अगल-बगल अपने-अपने फट्टे पर विराजमान अन्य बन्दी थे जो प्रथम दृष्टया सर्प एवं नाग जैसे दिखते थे। इनके साथ कुछ दिन रहने के बाद पता चलता है कि इनमें से कुछ बेहद विषैले, कुछ विषैले और कुछ पानी वाले हैं। पुलिस की बर्बरता और सिस्टम की ख़ामियों की वजह से अनेक निर्धन मासूम निर्दोष बन्दी भी थे जिनकी संख्या सबसे अधिक थी।
इस पुस्तक में मेरी जेल यात्रा का जो वर्णन आपको पढ़ने को मिलेगा उसको पढ़कर आपको मेरी वेदना की अनुभूति होगी। मेरी व मेरे परिवार की यही वेदना इस पुस्तक के लिखने का कारण बनी। इस पुस्तक का लेखन मेरी विवशता बन गया था क्योंकि राजनीतिक विद्वेष और मेरे विरुद्ध कूटरचित ढंग से रचे गये षड्यन्त्रों ने मेरे तथा मेरे परिवार को नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
मेरी इस जेल यात्रा की कहानी में आपको यह पढ़ने को मिलेगा कि राजनेताओं के इशारों पर पुलिस द्वारा मेरे व मेरे परिवार के साथ जो बर्बरतापूर्ण व्यवहार और अत्याचार किया गया वह एक भयानक त्रासदी से कम न था। पुलिस इंस्पेक्टर दिनेश त्रिपाठी के नेतृत्व में बार-बार मेरे घर में घुसकर महिलाओं को धमकाने और अपमानित करने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था। रात में दो बजे घर की घंटी बजती थी तो पता चलता था निशातगंज चौकी के पुलिस के सिपाही यह कहने आये हैं कि मेम साहब से पूछो कुछ ख़र्चा मिलेगा क्या? वरिष्ठ नौकरशाहों के दबाव में पुलिस का यह निरंकुश चेहरा कम-से-कम मेरे लिए बेहद अप्रत्याशित था। जब मेरे तथा मेरे परिवार पर लम्बे समय से हो जुल्मों के कारण धैर्य ने मेरा साथ छोड़ दिया तब मैंने अपने दर्द को पुस्तक का रूप देने का निर्णय लिया।