युवा कवयित्री राजुला शाह का यह पहला कविता-संग्रह है। उनकी कविता स्पर्श और दृष्टि की हल्की-सी छुअन के साथ वस्तु-जगत के रूपान्तरों से खेलती हुई सहज ही अमूर्त के अथाह में छलांग लगाती देखी जा सकती है। एकदम निजी और अन्तरंग को व्यक्त करने के, लिए राजुला जिन बिम्बों और उपमाओं को लाती हैं वे उसे न केवल गहराई देते हैं, एक ताजगी भी दे जाते हैं-
'कहा
जो
हवा में
कोई फूँक-सा
उसे सुन ले
झरने की झिलमिल छाया में
पानी पर ततैया के खेल-सा
मन में छूट जाए।'
प्रकृति और जीवन के इन सघन राग-संवेगों के बीच राजुला की कविताओं में मृत्यु और अस्मिता के सवाल सहज कौंध की तरह आते हैं-
'अभी हैं
अभी नहीं हैं
होना
न होना कितना सहज था
आँखें बन्द करके
छुप सकते थे बचपन में ।'
आज जब कविता बोलचाल के नाम पर अपनी व्यंजनात्मक क्षमता खोकर सपाट हुई जा रही है, राजुला का शब्द और लय के नये, अर्थपूर्ण संयोजन का यह आकर्षण निश्चय ही कविता के पक्ष में महत्त्वपूर्ण संकेत है।
"राजुला शाह -
जन्म : 25 जुलाई 1974, भोपाल (म.प्र.) में ।
1997 में भोपाल विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए.। कुछ समय बड़ौदा फाइन आर्ट्स कॉलेज में पेंटिंग का प्रशिक्षण; और फिर 2001 में फ़िल्म ऐंड टेलीविज़न संस्थान, पुणे से फ़िल्म निर्देशन में डिप्लोमा ।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित। कुछेक काव्यानुवाद 'पेंग्विन' के कविता-संकलनों में । डचं चित्रकार विन्सेंट वान गॉग के अपने भाई के नाम लिखे गये शताधिक पत्रों का हिन्दी अनुवाद। ड्राइंग-पेंटिंग में विशेष रुचि ।
महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए 'भक्तिकाव्य की लोकव्याप्ति : मालवा क्षेत्र' पर शोध एवं लघु फ़िल्म का निर्माण कार्य ।
सम्प्रति 'इंडिया फाउंडेशन फार दि आर्ट्स', बेंगलोर के लिए देश की कुछ मौलिक प्रतिभा-सम्पन्न महिला-कुम्हारों पर फ़िल्म बनाने का कार्य प्रारम्भ ।
प्रस्तुत कविता-संग्ग्रह 'परछाईं की खिड़की से' भारतीय ज्ञानपीठ की 'नवलेखन पुरस्कार योजना' के अन्तर्गत पुरस्कृत ।"