परिवर्तन की परम्परा के कवि लीलाधर जगूड़ी
हिन्दी कविता के समकालीन फलक पर गये पाँच दशकों से आच्छादित लीलाधर जगूड़ी की कविताएँ जहाँ एक ओर अपने कथ्य और प्रतीत की यथार्थवादी अभिव्यक्तियों के लिए जानी-पहचानी जाती हैं, वहीं अपने सर्वथा अलग भाषिक स्थापत्य के लिए भी। हम कह सकते हैं कि आज की कविता को रघुवीर सहाय व केदारनाथ सिंह के बाद धूमिल और जगूड़ी ने गहराई से प्रभावित किया है। परिवर्तन की परम्परा के कवि के रूप में लीलाधर जगूड़ी निरन्तर अपने काव्य संस्कारों को माँजने वाले कवियों में रहे हैं। इसीलिए वे खेल-खेल में भी शब्दों के नये से नये अर्थ के प्रस्तावन के लिए प्रतिश्रुत दिखते हैं। अपनी सुदीर्घ काव्य यात्रा में जगूड़ी की विशेषता यह रही है कि वे विनोद कुमार शुक्ल की तरह ही, अपने ही प्रयुक्त कथन, भाव, बिम्ब या प्रतीक को दुहराने से बचते रहे हैं। यह उनकी मौलिकता का साक्ष्य है। हिन्दी की विदुषी आलोचक बृजबाला सिंह ने लीलाधर जगूड़ी पर केन्द्रित अपनी पुस्तक में जगूड़ी के पाठ्यबल के गुणसूत्र को कवि-जीवन, रचना यात्रा, कविता के उद्गम स्थल, चेतना के शिल्प और लम्बी कविताओं के महाकाव्यात्मक विधान के आलोक में कविता-विवेक के साथ लक्षित-विश्लेषित किया है। वे कविता में प्रतीकों के दिन थे, जब चिड़िया, बच्चे, पेड़ अपनी संज्ञाओं की चौहद्दी से पार नये अर्थ के प्रतीक के रूप में अभिहित हो रहे थे। जगूड़ी जैसे कवि ऐसे प्रतीकों के पुरोधा थे। कविता की धरती को अपने अनुभवन से निरन्तर पुनर्नवा करने की उनकी कोशिशों का ही प्रतिफल है कि उनकी कविता का मिजाज नाटक जारी है से जितने लोग उतने प्रेम तक उत्तरोत्तर बदलता रहा है। मेगा नैरेटिव के कवि जगूड़ी किसी आख्यानक का बानक रचने के बजाय सार्थक वक्तव्यों की लीक पर चलते हुए अब तक जीवन के तमाम ऐसे अलक्षित पहलुओं को कविता में लाने में सफल हुए हैं जैसी सफलता कम लोगों ने अर्जित की है। बाज़ारवाद, उदारतावाद और विश्व मानवता को प्रभावित करने वाले कारकों के साथ वैश्विक वित्त और लौकिक चित्त की अन्तर्दशाओं का ऐसा भाष्य उनके समकालीनों में विरल है, इसलिए जगूड़ी को लेकर किसी भी फौरी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता। बृजबाला सिंह जगूड़ी के बहुआयामी अनुभव संसार से इस तरह जुड़ती हैं जैसे वे चौपाल में अपने शिष्यों के बीच बैठ कर धीरज के साथ कवि और कविता के सच्चे निहितार्थों का प्रवाचन कर रही हों। -ओम निश्चल