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Bharatiya Jnanpith
प्रिंट लाइन
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9789326350525
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"प्रिंट लाइन -
स्मृति के ताने-बाने के सहारे रचा गया यह उपन्यास एक ओर तो अमर की आत्म-गाथा है तो दूसरी ओर उसके माध्यम से प्रिंट लाइन में लगातार गहराते अन्धकार का लेखा-जोखा भी। अपने सतत आत्म-संघर्ष के बाद अमर इस नतीजे पर आता है कि 'प्रिंट लाइन के भीतर के लोग प्रिंट लाइन का संयम तोड़कर बाहर आ गये हैं और यह भी कि उसके बाहर ढेर सारे अपनों के बीच अब पहचानना मुश्किल हो गया है कि कौन मीडिया से है और कौन नहीं।’
आत्म-साक्ष्य पर रचा गया यह उपन्यास, आत्मग्रस्त उपन्यास नहीं है: इसमें आत्म और अन्य के बीच लगातार आवाजाही है। ज़ाहिर है इसीलिए अमर की बाह्य और अन्तःकथा का संसार एकरैखिक होकर भी सपाट नहीं है। उसमें द्वन्द्व है, दुविधा है, संशय है। वहाँ सफ़ेद सिर्फ़ सफ़ेद और काला सिर्फ़ काला नहीं है। काले और सफ़ेद के बीच भी कई रंग हैं। प्रश्नाहत अमर सबके साथ होने के बावजूद अकेला है। उसे लगता है कि इस संसार की मूल बुनावट ही ट्रैजिक है: 'मनुष्य जब अपने दुःख के विषय में सोचता है तो उसे लगता है कि उससे अधिक कोई दुःखी नहीं होगा। लेकिन बहुत कम लोग ही सोच पाते हैं कि यह पूरा संसार ही दुःखों से भरा हुआ है।'
छत्तीसगढ़ के विभिन्न क़स्बों और शहरों से गुज़रती 'प्रिंट लाइन' की यह कथा न तो मात्र छत्तीसगढ़ तक सीमित है और न ही निरी प्रिंट लाइन की कथा। इकहरेपन के बावजूद उसमें अनुगूँजें हैं। अपनी व्याप्ति में वह हिन्दुस्तान में आज़ादी के बाद सतह पर फैलती लेकिन भीतर से सिकुड़ती संवेदना का प्रतिध्वनित वृत्तान्त भी है। प्रिंट लाइन को पढ़ने का अर्थ इस वृत्तान्त को सुनना भी है। वह जीवन के अस्वीकार का नहीं, बुनियादी तौर पर जीवन को स्वीकार का एक प्रीतिकर वृत्तान्त हैं। -डॉ. राजेन्द्र मिश्र
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ISBN
9789326350525
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Bharatiya Jnanpith
Publication | Bharatiya Jnanpith |
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