रचना की ज़मीन
"हर समय की अपनी आवाज़ होती है। कुछ अपने बोल होते हैं, अपने-अपने शब्द, अपने मुहावरे होते हैं और होती है अपनी भाषा जिससे संवाद किये बगैर उस समय की धड़कन यानी बच्चे के लिए कोई किताब नहीं लिखी जा सकती। यही किसी भी नयी रचना या नयी पुस्तक की ज़मीन बन सकती है।
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कविता अपनी बुनावट में खुलती जा रही थी। पूरी कक्षा इस अन्त से चकित थी। उनके सामने जैसे एक भयावह रहस्य खुल रहा था या कवि के शब्दों में भेद खुल रहा था, कि बुद्धि की कंगाली की अन्तिम परिणति क्या है ?
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मेरे सामने उद्धव की गोपियों की तरह कई किताबें खुल पड़ी हैं। कह रही हैं - 'हमका लिख्यो है कहा, हमका लिख्यो है कहा' । देखिए तो, जिन किताबों में मैंने काम किया वे सब की सब अपनी-अपनी कहानी सुनाने को उतावली हो गयीं ।
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मुझे लगा मैं किताब नहीं खुद को पढ़ रही हूँ । किताब के पन्नों को उलटते-पलटते कई बार कई तरीके से पढ़ा। कभी बीच से, कभी अन्त से, तो कभी शुरू से, हर बार एक नये अर्थ के साथ। इस किताब के पन्नों के भीतर से कई बार मैंने कई सदी की स्त्रियों, तो कभी मेरे घर की रसोई में खड़ी स्त्री की धड़कन महसूस की ।
(इसी किताब से...)
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