Publisher:
Vani Prakashan

Rang Dastavez Sau Saal (2 Volume Set )

In stock
Only %1 left
SKU
9788181970183
Rating:
0%
As low as ₹2,375.00 Regular Price ₹2,500.00
Save 5%

रंग दस्तावेज़ (खण्ड - 1-2 ) – 
(खण्ड – 1) - 
इन निबन्धों में पहली बार नाटक के प्रदर्शनमूलक स्वरूप और दर्शकों की सामूहिक चेतना का प्रश्न उठाया गया था, परन्तु यह एक दिलचस्प तथ्य है कि स्वाधीनता संग्राम के परिवेश में अधिकांश नाटककारों और रंगकर्मियों की रुचि चिन्तन की अपेक्षा रंगपरिवेश के निर्माण में अधिक रही। इसलिए बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र और केशवराम भट्ट आदि ने अपने समय के 'तमाशबीन' को 'सामाजिक' बनाने का प्रयास किया। रंगकर्म की कई सम्भावनाओं को ठोस रूप देने के लिए वे पारसी रंगमंच की 'विकृतियों' के साथ ब्रिटिश सरकार से भी लड़ाई जारी रखे हुए। यह कहा जा सकता है कि उनके लेखन और प्रदर्शन का स्वरूप पारसी रंगमंच का सामना करने के लिए काफ़ी नहीं था। वे विरोध करने के बावजूद उसके कई रूपों और तत्त्वों को अपनाते रहे। फिर भी, औपनिवेशिक वर्चस्व के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए उनके सामने सामाजिक नवजीवन का लक्ष्य था। यही बिंदु उन्हें पारसी रंगमंच से अलग करता था। अल्पजीवी होने के बावजूद विभिन्न रंगकेन्द्रों के नाटककार, मंडलियाँ और रंगकर्मी स्थानीय स्तरों पर बौद्धिक और रंगमंचीय हलचल पैदा करने में कामयाब रहे।
(खण्ड - 2) - 
यहाँ प्रस्तुत लेखों में एक 'भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र' लेख (1913) में प्रेमचन्द ने अपनी सहज शैली में भारतेंदु के नाटककार व्यक्तित्व का सजीव चित्र उभारते हुए उनके नाटकों पर कुछ टिप्पणियाँ की हैं। जब वह लिखते हैं कि “...बाबू हरिश्चन्द्र के मौलिक नाटकों में एक ख़ास कमज़ोरी नज़र आती है और वह है कथानक की दुर्बलता।...इसी प्लाट की कमज़ोरी ने अच्छे कैरेक्टरों को पैदा न होने दिया।.....दुर्बल घटनाओं की स्थिति में ऊँचे कैरेक्टर क्योंकर पैदा हो सकते हैं।" तो हमारे सामने उनका एक सन्तुलित आलोचक रूप प्रकट होता है। परन्तु जब वे 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' तथा 'अन्धेर नगरी' के बारे में कहते हैं कि ये रचनाएँ नाटक नहीं, बल्कि 'राष्ट्रीय और सामाजिक प्रश्नों पर हास्य-व्यंग्यपूर्ण चुटकले हैं' तो उनकी रंगदृष्टि की सीमाएँ भी साफ़ उभर आती हैं। प्रेमचन्द पारम्परिक नाट्यरूपों के ताने-बाने से बुनी उनकी लचीली दृश्यरचनाओं को विश्लेषित नहीं कर सके। वस्तुतः, ये नाटक संवादों की अपेक्षा दृश्य-प्रधान प्रस्तुति-आलेख हैं, जबकि प्रेमचन्द ने इन्हें यथार्थवादी रंगशिल्प की दृष्टि से परखा है।
इस लेख से अलग मार्क्सवादी आलोचक प्रकाशचन्द्र गुप्त ने 'प्रसाद की नाट्यकला' (1938) में प्रसाद के नाटकों का विश्लेषण करते हुए, शास्त्रीयता के वाग्जाल से मुक्त नाट्यालोचन का परिचय दिया है। तत्कालीन सीमाओं को देखते हुए उन्होंने कहा है कि "प्रसाद ने हिन्दी में एक नये ढंग के नाटक की सृष्टि की।...उचित परिस्थितियों में अभिनय के योग्य भी हैं।"
अलग-अलग शैलियों में लिखे गये ये लेख दो महत्त्वपूर्ण नाटककारों की परख के माध्यम से एक पाठक (प्रेमचन्द) और एक आलोचक (प्रकाशचन्द्र गुप्त) की दृष्टियों को सामने लाते हैं। प्रेमचन्द ने अपने एक अन्य लेख 'हिन्दी रंगमंच' में पारसी रंगमंच का विवेचन जिस दृष्टि से किया है, वह रंगमंच से उनके गहरे जुड़ाव की ओर संकेत करता है। प्रकाशचन्द्र गुप्त ने नाटक पर भले ही अधिक न लिखा हो, परन्तु उनका लेख सन्तुलित नाट्यदृष्टि का प्रारम्भिक परिचय ज़रूर देता है।

ISBN
9788181970183
Publisher:
Vani Prakashan
More Information
Publication Vani Prakashan
sfasdfsdfadsdsf
Write Your Own Review
You're reviewing:Rang Dastavez Sau Saal (2 Volume Set )
Your Rating
कॉपीराइट © 2025 वाणी प्रकाशन पुस्तकें। सर्वाधिकार सुरक्षित।

Design & Developed by: https://octagontechs.com/