रत्नत्रयववर्धीनी टीका (रयणसार) भाग-2
रयणसार
श्रमण संस्कृति के उन्नायक, अध्यात्म मानसरोवर के राजहंस एवं दिव्यातिशयसम्पन्न आचार्य कुन्दकुन्द का नाम विशेष आदर व श्रद्धा के साथ लिया जाता है। इन्होंने भव्य आत्माओं के कल्याण के लिए शौरसेनी प्राकृत में अनेक ग्रन्थ लिखे, जिनमें 'रयणसार ग्रन्थ का विशिष्ट स्थान है।
लोक में सर्वश्रेष्ठ दुर्लभ पदार्थों को 'रत्न' कहा जाता है। हीरे, मणि, आदि भौतिक रत्न नश्वर होते हैं, किन्तु धर्मरत्न स्वयं तो अविनश्वर है ही, शाश्वत मोक्ष पद को प्राप्ति में भी सहायक होता है, अतः इसका लोकोत्तर महत्त्व निर्विवाद है। वस्तुतः धर्मरत्न श्रद्धा (सम्यग्दर्शन), समीचीन ज्ञान व समीचीन चारित्र का समुदित रूप है। रयणसार ग्रन्थ में इन रत्नों का विशेषतः सम्यकत्त्व रत्न का महत्त्व एवं उसका व्यावहारिक रूप प्रतिपादित किया गया है। प्रत्येक धार्मिक (सम्यग्दृष्टि) के लिए यह ग्रन्थ विशेषतः पठनीय-मननीय है।
रत्नत्रयवर्धिनी टीका
इस ग्रन्थ पर अभी तक संस्कृत में, विशेषतः इतनी विस्तृत कोई टीका नहीं थी, जिसकी पूर्ति परम पूज्य गणाचार्य श्री विरागसागर जी महाराज द्वारा की गयी है। इसका अन्वयार्थक नाम 'रत्नत्रयवर्धिनी' है। इसमें प्रमुखतः एक सौ सत्रह ग्रन्थों से (83 संस्कृत एवं 34 प्राकृत ग्रन्थों से) उद्धरण देकर जैन तत्त्वज्ञान, सागार व अनगार चर्या, ध्यान-साधना आदि विविध महत्त्वपूर्ण विषयों पर विस्तृत चर्चा की गयी है। समग्रतः यह टीका जैन तत्त्वज्ञान के एक लघु विश्वकोश के रूप में विद्वज्जनों में आदूत होगी।
संस्कृत-प्राकृत के ख्यातिप्राप्त एवं राष्ट्रीय पुरस्कृत विद्वान प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री ने इस टीका का हिन्दी अनुवाद का कार्य एवं सम्पादन किया है। ग्रन्थ के अन्त में विस्तृत परिशिष्ट एवं प्रारम्भ में प्रस्तावना खंड इस ग्रन्थ की उपयोगिता को बढ़ाते हैं।
Publication | Bharatiya Jnanpith |
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