साहित्य इतिहास और संस्कृति
साहित्य इतिहास और संस्कृति -
इतिहास साक्षी है कि बग़ावतें और क्रान्तियाँ, महत् अभियान और जन-आन्दोलन, जब भी और जहाँ भी हुए हैं, उनके पीछे भले ही, सतह पर दिखायी देने वाले तात्कालिक कारण होते हों, प्रायः वे इन कारणों की उपज नहीं हुआ करते। उनके लिए मेघखण्ड आकाश में बहुत पहले से एकत्र होते रहते हैं, और अचानक कुछ ऐसा घटित होता है कि बिजली की एक कौंध के साथ वह धाराधार बरसने लगते हैं।
किसी विद्रोह, अभियान या आन्दोलन के तात्कालिक कारण जो भी हों, उनके सूत्रधार कोई भी हों और उनके लक्ष्य कुछ भी हों, एक बार असन्तोष का दावानल क्रान्ति या विद्रोह के रूप में भभक उठा, आन्दोलन की शक्ल पा गया, असन्तोष के न जाने कितने आयाम, न जाने कहाँ-कहाँ से उसमें जुड़ने लगते हैं, जो न केवल उसके जनाधार को व्यापक और विशद करते हैं, उसके चरित्र को ही गुणात्मक रूप से बदल देते हैं। ज़रूरी नहीं कि वह अपने सूत्रधारों के इशारों पर ही चले और उनके अपने लक्ष्यों के अनुरूप चले। प्रायः ही वे अपने प्रवर्तकों या सूत्रधारों की इच्छा और के विपरीत बृहत्तर रूप और सन्दर्भ पा जाते हैं। ऐसा उस स्वाधीनता आन्दोलन में भी हुआ है, जिसकी परिणति 1947 की स्वाधीनता में हुई, ऐसा विश्व के दीगर महत् अभियानों में हुआ है और यही 1857 के उस उद्वेलन का सच भी है, जो एक सीमित फ़ौजी बग़ावत से शुरू होकर एक 'राष्ट्रीय विद्रोह' में बदल जाता है।
इस तरह की बातें विद्रोह के क्रमशः प्रशस्त हुए लक्ष्यों का अनादर करती हैं, उन साक्ष्यों की उपेक्षा करती हैं जो इश्तिहारों में, गीतों और कविताओं में, शाही बयानों और फ़ौजियों के अख़बारों में इन सारी बातों का प्रतिवाद करते हुए मौजूद हैं।
यदि यह सब 'मिथ' है, तो पूछने का मन होता है कि इतिहास क्या है? इतिहास कोई तैयार माल नहीं होता। जनता के क्रियाकलाप ही इतिहास बनाते हैं।