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समाधि भक्ति

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समाधि भक्ति
द्वितीय शताब्दी में आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य समन्तभद्र एवं उमास्वामी प्रभृति अनेक प्रीति पूर्वक सल्लेखना धारण करने की प्रेरणा की।
पाँचवीं शताब्दी में आचार्य पूज्यपाद ने समाधि भावना को अनेक पूर्वाचार्यों ने अपनी भक्ति को अपनी प्रिय भक्ति माना। वर्तमान में आचार्य श्री विभवसागर मुनिराज ने, सन् 2005 में, सिद्धक्षेत्र कुंथलागिरि में, तेरी छत्रच्छाया भगवन् । मेरे शिर पर हो मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो।
हिन्दी जैन काव्य साहित्य में उन्नीसवीं सदी की यह रचना प्रारम्भ की 'छहढाला' बीसवीं सदी की 'मेरी भावना' इक्कीसवीं सदी की समाधि भक्ति श्रेष्ठतम अमर रचनाएँ हैं।

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