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समीचीन जैनधर्म

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समीचीन जैनधर्म
(मोक्षमार्ग प्रकाशक-सार)
पण्डितप्रवर टोडरमलजी जैनधर्म के प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्होंने 'गोम्मटसार' जैसे महान् ग्रन्थराज की भाषा टीका की थी। साथ ही वे आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म ग्रन्थों के भी तलस्पर्शी विद्वान् थे। इस तरह निश्चय-व्यवहाररूप जिनवाणी का उनका अभ्यास अपूर्व था। उसी को लेकर उन्होंने 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' ग्रन्य की रचना उस समय की ढूँढारी भाषा में की थी। इस ग्रन्थ में नौ अध्याय हैं। उनमें, अन्तिम चार अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। छठे अधिकार में कुदेव, कुगुरु और कुधर्म का प्रतिषेध करते हुए तीनों के स्वरूप का विस्तार से वर्णन है। सातवें अधिकार में एकान्त निश्चयावलम्बी, एकान्त व्यवहारावलम्बी और एकान्त उभयावलम्बी जैन मिथ्यादृष्टियों का विवेचन है जो जिनागम में इस प्रकार से कहीं भी वर्णित नहीं है। आठवें अधिकार में चारों अनुयोगों की उपयोगिता का विवेचन है जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। नवम अधिकार में मोक्षमार्ग स्वरूप का विवेचन करते हुए सम्यग्दर्शन के विभिन्न लक्षणों का समन्वय बड़ी ही सुन्दर रीति से किया है। इस तरह ये चारों अध्याय स्वाध्याय-प्रेमियों और जैनधर्म के अभ्यासी छात्रों तथा विद्वानों के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। किन्तु ग्रन्थ के अन्त तक पढ़ जाने पर भी उसका महत्त्व सर्वसाधारण की दृष्टि में नहीं आता। इसी से उसे प्रमुखता देने के लिए मैंने 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' का ही अवलम्बन लेकर उसके साररूप में 'समीचीन जैनधर्म' नामक पुस्तक संकलित की है। इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है। सब-कुछ 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' का ही सार है। आशा है इससे 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' का अभिप्राय सर्वसाधारण तक पहुंच सकेगा और वे इसे पढ़कर जैनधर्म सम्बन्धी निश्चय और व्यवहारपरक विवादों को दूर कर जिनवाणी के यथार्थ स्वरूप को हृदयंगम कर सकेंगे तथा एकान्तवाद रूप मिथ्यात्व के चंगुल से छूटकर सच्चे जैन बनने में समर्थ हो सकेंगे। मेरा प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी से अनुरोध है कि वे इस पुस्तक का अध्ययन अवश्य करें। त्याग-मार्ग के पथिकों के लिए भी यह उपयोगी है।

- कैलाशचन्द्र शास्त्री

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