शहर में गाँव

In stock
Only %1 left
SKU
9789350728840
Rating:
0%
As low as ₹636.00 Regular Price ₹795.00
Save 20%

शहर में गाँव - 
निदा फ़ाज़ली चलती फिरती लेकिन लम्हा-ब-लम्हा बदलती ज़िन्दगी के शायर हैं। उनका कलाम मेहज़ ख़याल आराई या किताबी फ़लसफ़ा तराजी नहीं है। वजूदी मुफ़क्किर व अदीब कामियों ने कहा है। मेरे आगे न चलो, मैं तुम्हारी पैरवी नहीं कर सकता। मेरे पीछे न चलो मैं रहनुमाई नहीं कर सकता। मेरे साथ चलो... दोस्त की तरह।
कामियों की ये बात निदा के अदबी रवैये पर सादिक आती है। उनकी शायरी क़ारी असास शायरी है। इसमें बहुत जल्द दोस्त बन जाने की सलाहियत है। इसमें नासेहाना बुलन्द आहंगी है, न बागियाना तेवर हैं। उन्होंने लफ़्ज़ों के ज़रिये जो दुनिया बसायी है वो सीधी या यक रुखी नहीं है। उसके कई चेहरे हैं। ये कहीं मुस्कुराती है कहीं झल्लाती है। कहीं परिन्दा बन के चहचहाती है और कहीं बच्चा बन के मुस्कुराती है। उन्हीं के साथ जंग की तबाहकारी भी है। सियासत की अय्यारी भी है। इन सारे मनाज़िर को उन्होंने हमदर्दाना आँखों से देखा है और दोस्त की तरह बयान किया है।
निदा की तख़लीक़ी ज़ेहानत की एक और ख़ुसूसियत की तरफ़ इशारा करना भी ज़रूरी है। इन्सान और फ़ितरत के अदम तबाजुन को जो आज आलमी तशवीशनाक मसला है निदा ने निहायत दर्दमन्दी के साथ मौजू-ए-सुख़न बनाया है। जिस दौर में बढ़ती हुई आबादी के रद्दे अमल में, बस्तियों से परिन्दे रुख़सत हो रहे हों, जंगलों से पेड़ और जानवर गायब हो रहे हैं, समुन्दरों को पीछे हटाकर इमारतें बनायी जा रही हों। उस दौर में फ़ितरत की मासूम फ़िज़ाइयत और उसकी शनाख्त के आहिस्ता-आहिस्ता ख़त्म होने की अफ़सुर्दगी ने इनकी इंफ़ेरादियत में एक और नेहज का इज़ाफ़ा किया है।
सुना है अपने गाँव में रहा न अब वो नीम
जिसके आगे माँद थे सारे वैद हकीम।
अन्तिम आवरण पृष्ठ  - 
निदा फ़ाज़ली आज के दौर के अहम और मोअतबर शायर हैं। वो उन चन्द ख़ुशक़िस्मत शायरों में हैं जो किताबों और रिसालों से बाहर भी लोगों के हाफ़ज़ों में जगमगाते हैं। उनकी शायरी की ये ख़ूबी उन्हें 16वीं सदी के उन सन्त कवियों के क़रीब करती नज़र आती है जिनके कलाम की ज़मीनी कुर्बतों, रूहानी बरकतों और तस्वीरी इबारतों को शुरू ही से उन्होंने अपने कलाम के लेसानी इज़हार का मेआर बनाया है। इर्दगिर्द के माहौल से जुड़ाव और फ़ितरी मनाज़िर से लगाव उनकी शेअरी ख़ुसूसियात हैं। रायज रिवायती ज़बान में मुक़ामी रंगों की हल्की गहरी शमूलियत से निदा फ़ाज़ली ने जो लब-ओ-लहज़ा तराशा है वो उन्हीं से मख़सूस है। उनके यहाँ शेअरी ज़बान न चेहरे पर दाढ़ी बढ़ाती है न माथे पर तिलक लगाती है। ये वो ज़बान है जो गली-कूचों में बोली जाती है और घर-आँगन में खनखनाती है। बोल चाल के लफ़्ज़ों में शेअरी आहंग पैदा करना उनकी इंफ़ेरादियत है।

ISBN
9789350728840
Write Your Own Review
You're reviewing:शहर में गाँव
Your Rating
कॉपीराइट © 2025 वाणी प्रकाशन पुस्तकें। सर्वाधिकार सुरक्षित।

डिज़ाइन और विकास: Octagon Technologies LLP